(नचिकेता नारायण)
पटना, 19 दिसंबर बिहार की प्रशासनिक क्षमता की परीक्षा इस साल कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान हुई जब यहां के स्वास्थ्य ढांचे पर अचानक भारी दबाव पड़ा। इसके साथ ही शराब बंदी के बावजूद जहरीली शराब पीने से कई स्थानों पर हुई मौतों ने भी यहां के प्रशासन पर सवाल पैदा किए।
बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन को नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इंगित किया जो नीतीश कुमार सरकार के लिए असहज करने वाली बात थी जिसका मानना है कि उसकी बदलाव लाने की कोशिशों पर भी गौर किया जाना चाहिए।
बिहार में पिछले साल कोरोना वायरस की महामारी की गंभीरता अपेक्षाकृत कम थी लेकिन इस साल गर्मी में इसकी तपिश महसूस की गई और उपचाराधीन मरीजों और मौतों की संख्या महज कुछ महीनों में छह गुना तक बढ़ गई।
इस संक्रमण ने अपनी विभीषिका और ताकत दिखाई और दूसरी लहर में मरने वालों में कई ताकतवर हस्तियां थी जिनमें राज्य के मुख्य सचिव और विधायिका के कई सदस्य शामिल थे। इस विषाणु के सामने सभी की असहाय स्थिति थी और इसका सबूत पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन की मौत है जिनकी राजनीतिक हैसियत और दबदबे का जोर राज्य के बाहर तक था लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में कैदी के तौर पर उनकी संक्रमण से मौत हुई और उन्हें कोटला में दफनाया गया। महामारी की वजह से हजारों समर्थकों में से शायद ही कोई उन्हें सुपुर्द ए खाक करते वक्त मौजूद था।
दिल्ली के मजदूर की फोन पर बिहार के बेगुसराय में रहने वाले परिवार के सदस्य के साथ बात करने की तस्वीर और उसके चेहरे पर अफसोस के भाव ने पिछले साल लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की दशा को परिभाषित किया था।
बक्सर जिले में गंगा नदी के किनारे सड़ी-गली हालत में तैरती लाशों की तस्वीर महामारी की दूसरी लहर की भयावहता को प्रदर्शित कर रही थी और जिसने युवाओं और बुजर्गों को घुटनों पर ला दिया था।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने बिहार को उन राज्यों में शीर्ष पर रखा जहां पर सबसे ज्यादात डॉक्टर कोरोना वायरस के शिकार हुए, जिससे महामारी के खिलाफ अग्रिम मोर्चे पर लड़ रहे योद्धाओं के लिए सुरक्षा उपकरणों की कमी रेखांकित हुई।
वहीं, शराब बंदी के बावजूद पश्चिमी चंपारण, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर जिलों में दिवाली के समय जहरीली शराब पीने से 40 से अधिक लोगों की मौत हुई।
बिहार में राजनीति हमेशा से केंद्र में रहा हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रदर्शित किया कि पिछले साल विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद वह अडिग हैं। इस साल के शुरुआत में उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड दिया। हालांकि, इस पद पर अपने करीबी को बैठाने के बाद पार्टी पर उनकी पकड़ बनी हुई है। जीवन के सातवें दशक में पहुंच चुके कुमार राज्य के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नेता बन गए हैं। उन्होंने पूर्व प्रतिद्वंद्वी उपेंद्र कुशवाहा को जदयू में शामिल कराया जिन्होंने अपनी पार्टी आरएलएसपी का भी कुमार के दल में विलय किया है।
राम विलास पासवान के निधन के एक साल से भी कम समय में बिहार ने उनकी पार्टी लोजपा को दो फाड़ होते हुए इस साल देखा। एक हिस्से का नेतत्व उनके छोटे भाई पशुपति कुमार पारस कर रहे हैं जबकि उनके बेटे चिराग पासवान को अलग कर दिया गया।
वहीं, विपक्षी खेमें में भी पुराने साथी कांग्रेस और राजद कई बार लड़े और अलग हो गए । कांग्रेस ने कुछ प्रयास किए और तेज तर्रार नेता कन्हैया कुमार को पार्टी में शामिल करने के बाद 2024 के चुनाव में अकेले मैदान में उतरने का संकल्प लिया।
इसी साल राज्य विधानसभा की इमारत के सौ साल पूरे हुए और इसका बड़े पैमाने पर जश्न मनाया गया और स्वयं राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद इसमें शामिल हुए। हालांकि, इस साल को विधानसभा की कुरूप तस्वीरों के लिए भी याद किया जाएगा जब राजद नीत विपक्ष ने स्पीकर को कथित तौर पर बंधक बना लिया और उन्हें पुलिस के लाठीचार्ज के बाद हटाया गया।
Disclaimer: लोकमत हिन्दी ने इस ख़बर को संपादित नहीं किया है। यह ख़बर पीटीआई-भाषा की फीड से प्रकाशित की गयी है।