बंगाल में कई विधायकों के दल-बदल करने के बाद भी किसी के खिलाफ नहीं हो सकी कार्रवाई
By भाषा | Updated: June 28, 2021 16:17 IST2021-06-28T16:17:41+5:302021-06-28T16:17:41+5:30

बंगाल में कई विधायकों के दल-बदल करने के बाद भी किसी के खिलाफ नहीं हो सकी कार्रवाई
(प्रदीप्त तापदार)
कोलकाता, 28 जून पश्चिम बंगाल की राजनीति में पिछले दशक में ‘आया राम गया राम’ की संस्कृति ने गहरी जड़ें जमा ली है। कई विधायकों को अक्सर एक पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी का दामन थामते देखा गया, इनमें से किसी को भी दल-बदल रोधी कानून का सामना नहीं करना पड़ा है।
विधानसभा अध्यक्ष बिमान बनर्जी इस बात से सहमत हैं कि पिछले 10 वर्षों में दल-बदल करने वाले किसी भी विधायक को अयोग्य करार देने का कोई उदाहरण नहीं है, हालांकि उन्होंने इस बारे में और अधिक नहीं बताया।
बनर्जी ने कहा, ‘‘यह सच है कि पिछले 10 साल में पाला बदलने वाले किसी विधायक को अयोग्य करार देने का मामला विधानसभा में देखने को नहीं मिला है। लेकिन मैं इसके विस्तार में नहीं जाउंगा।’’ विधानसभा अध्यक्ष के तौर यह उनका तीसरा कार्यकाल है।
दल-बदल का नवीनतम उदाहरण राज्य के दिग्गज नेता मुकुल रॉय का है, जिन्होंने मार्च-अप्रैल में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा के टिकट पर जीत दर्ज की थी लेकिन इस महीने की शुरूआत में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गये।
भगवा पार्टी ने अपनी ओर से विधानसभा अध्यक्ष को एक याचिका देकर रॉय को अयोग्य करार देने की मांग की है। हालांकि, उसके इस कदम की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने आलोचना करते हुए कहा है कि पहले सांसद शिशिर अधिकारी और सुनील मंडल को लोकसभा की सदस्यता त्यागनी चाहिए। दोनों सांसद विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गये थे।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, 2010 में बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के उत्कर्ष के साथ राजनीतिक पार्टियां बदलने का चलन आम हो गया। उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस, वाम मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस के चार दर्जन से अधिक विधायकों ने 2011 से 2021 के बीच 15 वीं और 16 वीं विधानसभा में पाला बदला है।
अकेले 16 वीं विधानसभा में ही कांग्रेस के 44 में से 24 विधायक और वाम दल के 32 विधायकों में आठ तृणमूल कांग्रेस या भाजपा में शामिल हो गये।
हालांकि, कांग्रेस ने सिर्फ 12 और मार्क्स वादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने एक अयोग्यता याचिका दायर की।
कई मामलों में पार्टियां विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा खोने के डर से अयोग्यता याचिका दायर करने से दूर रहीं।
विपक्ष के नेता रह चुके अब्दुल मन्नान ने कहा कि केंद्र में भाजपा और राज्य में तृणमूल कांग्रेस के शासन के तहत दल-बदल रोधी कानून ‘‘एक मजाक बन कर रह गया है।’’
वाम मोर्चो के विधायक दल के पूर्व नेता सुजन चक्रवर्ती ने कहा कि वाम दल की विधायक दीपाली विश्वास 2016 के विधानसभा चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस में चली गई थी और वह पिछले साल भाजपा में शामिल हो गई। उनके खिलाफ अयोग्यता मामले की 26 सुनवाई होने के बाद वह विधानसभा सदस्य बनी हुई हैं।
चक्रवर्ती ने कहा, ‘‘उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई, इससे हम समझ सकते हैं कि स्पीकर कोई कदम उठाना नहीं चाहते थे। हमने अर्जी (याचिका) देना बंद कर दिया।’’
कानून के मुताबिक, दल-बदल करने वाले विधानसभा सदस्य को अयोग्य करार देने का स्पीकर का फैसला अंतिम होता है। हालांकि, उनके द्वारा इस बारे में फैसला करने के लिए कोई समय सीमा नहीं है। पार्टी अदालत का रुख तभी कर सकती है जब स्पीकर ने अपने फैसले की घोषणा कर दी हो।
मन्नान ने कहा कि संबद्ध कानून (दल-बदल रोधी कानून,1985) में स्पीकर के फैसले के लिए कोई समय सीमा नहीं होने की खामी का भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने फायदा उठाया।
उन्होंने कहा, ‘‘36 साल बाद इस कानून पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। ’’
हालांकि, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नीत तृणमूल कांग्रेस के प्रदेश महासचिव कुणाल घोष ने कहा, ‘‘उनकी अयोग्यता याचिकाओं का कोई नतीजा नहीं निकला होगा क्योंकि वे अपने मामले साबित करने में नाकाम रहे थे। ’’
उन्होंने कहा, ‘‘विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कुछ पाने के एवज में भाजपा में शामिल हुए विधायकों की तुलना कभी हमारी पार्टी में आए विधायकों से नहीं की जा सकती और दोनों को एक जैसा नहीं कहा जा सकता। यदि भाजपा कानून को लेकर इतनी ही गंभीर है तो उसे पहले शिशिर अधिकारी और सुनील मंडल के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। ’’
प्रदेश भाजपा प्रमुख दिलीप घोष ने दल-बदल को आम चलन बनाने के लिए तृणमूल कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया है।
उन्होंने आरोप लगाया, ‘‘2011 से तृणमूल कांग्रेस ने धन बल का इस्तेमाल कर कई विधायकों का दल-बदल कराया। क्या वह कानून के अनुरूप था? तृणमूल कांग्रेस को इसका जवाब देना चाहिए। ’’
उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश अशोक कुमार गांगुली ने दल-बदल को भारतीय राजनीति में एक ‘‘फैशन’’ बताते हुए कहा कि कानून को मजबूत कर ही इसे ठीक किया जा सकता है।
उन्होंने कहा, ‘‘कानून की समीक्षा करने की जरूरत है क्योंकि 1985 से भारतीय राजनीति काफी परिवर्तन के दौर से गुजरी है। अयोग्यता याचिका पर फैसला करने हेतु स्पीकर के लिए एक समय सीमा तय की जानी चाहिए। ’’
राजनीतक विश्लेषक सुमन भट्टाचार्य ने हैरानगी जताते हुए कहा कि क्या भाजपा इस कानून में संशोधन करने की कोई पहल करेगी क्योंकि उसने दल-बदल की संस्कृति का उन राज्यों में काफी फायदा उठाया है जहां उसे पूर्ण बहुमत नहीं मिला था।
राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती का मानना है कि इस कानून को मजाक बनाने के लिए भाजपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों ही जिम्मेदार हैं।
उन्होंने कहा कि भगवा पार्टी ने बंगाल में जो बोया था वही पाया है।
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