पटनाः बिहार में सरकार के द्वारा महिलाओं के लिए 10 हजारी योजना राजनीतिक तौर पर जरूर फायदेमंद दिखी। लेकिन आर्थिक रूप से ये बिहार के लिए विनाशकारी साबित हो रही है। इस योजना के कारण उससे पैदा हुआ माली बोझ ने राज्य सरकार की कमर तोड़ दी है। चुनावी मौसम की राहत और रहमत देने वाली यह योजना अब सरकार के लिए जिम्मेदारी का पहाड़ बन चुकी है। मुफ़्त बिजली, महिलाओं को दो-दो लाख की मदद और तमाम लोकलुभावन वादों ने बिहार के वित्तीय ढांचे में ऐसी दरार डाल दी है, जिसका भरना जल्दी मुमकिन नहीं दिखता। आगे 2-2 लाख रुपए देने हैं। मुफ्त बिजली के लिए भी पैसे जुटाने हैं। वैसे भी राज्य के हर व्यक्ति पर 27 हजार रुपए से अधिक कर्ज है। सरकार को अपनी मुफ्त की योजनाओं के लिए हजारों करोड़ रुपए जुटाने हैं।
आरबीआई के मुताबिक बिहार सरकार पर 3 लाख 61 हजार करोड़ रुपए का कर्ज है और यह बोझ हर साल बढ़ता जा रहा है। ऊपर से मुफ्त योजनाओं का तिलिस्म ऐसा कि सरकारी खज़ाने की सांसें उखड़ गई हैं। हाल यह है कि राज्य सरकार को एक साल के भीतर दो सप्लीमेंट्री बजट पेश करने पड़े।
हाल ही में पास हुए 91,717 करोड़ के सेकेंड सप्लीमेंट्री बजट में 21 हजार करोड़ रुपए सिर्फ़ जीविका दीदियों के लिए रखे गए, वह भी बिना किसी कर्ज या ब्याज के। बाक़ी योजनाओं के लिए अभी स्रोत साफ नहीं है सबसे भारी बोझ महिलाओं को 2 लाख रुपए देने के वादे का है। अगर 1.40 करोड़ महिलाओं को दिया जाए तो खर्च होगा ,2.8 लाख करोड़ रुपए, जो बिहार के मौजूदा बजट (3.16 लाख करोड़) का 88 फीसदी है। अर्थशास्त्री डॉ नवल किशोर की राय है कि यह योजना जमीनी हकीकत में ना-मुमकिन है।
उन्होंने कहा कि बिहार का राजस्व पहले ही वेतन, पेंशन, सब्सिडी और ब्याज में खप जाता है। कर्ज लेने की क्षमता भी सीमित है, ऐसे में इतनी बड़ी राशि जुटाना व्यावहारिक रूप से असंभव है। अगर अगले साल 2026-27 में बजट महज़ 11 फीसदी बढ़कर 3.51 लाख करोड़ भी हो जाए, तो भी पूरा बढ़ा हुआ पैसा सिर्फ़ महिलाओं को दे दिया जाए तो 17 लाख महिलाओं को ही 2 लाख दिया जा सकता है।
जबकि वादा 1.40 करोड़ महिलाओं का है। डॉ नवल किशोर साफ कहते हैं कि सरकार को अब केंद्र से मदद की उम्मीद है। यदि पर्याप्त पैसा नहीं मिला तो या तो भारी कर्ज लेना पड़ेगा, या सड़क, पुल, सिंचाई, स्कूल जैसे विकास कार्यों पर तगड़ी कटौती करनी होगी। यहां तक कि 10 लाख कर्मचारियों के वेतन और 5 लाख पेंशनभोगियों पर भी संकट गहराने की आशंका है।
सियासत की नजरों में यह रहमत भले हो, पर अर्थव्यवस्था के लिए यह जख्म बन चुका है। मुफ़्त की सियासत का यह सिलसिला जारी रहा तो बिहार का ख़ज़ाना ख़ाली होना तय है और आने वाले वक़्त में इसकी कीमत आम जनता को ही चुकानी पड़ेगी। ऐसे में केंद्र सरकार से मदद की आस है। पर्याप्त पैसे न मिले तो सड़क-पुल-पुलिया बनाने और दूसरे विकास के काम की उम्मीद तो रहने दीजिए।
राज्य सरकार के 10 लाख कर्मचारियों के वेतन और 5 लाख कर्मचारियों के पेंशन पर भी आफत आ सकती है। उल्लेखनीय है कि बिहार जातिगत सर्वेक्षण 2023 के मुताबिक राज्य की आबादी करीब 13 करोड़ है। इस हिसाब से प्रति व्यक्ति कर्ज करीब 27769 रुपए है। अर्थशास्त्रियों के मुताबिक बिहार सरकार अपने कुल जीएसडीपी का 40 फीसदी तक कर्ज ले सकती है।
इस सीमा तक राज्य की आर्थिक हालत को ठीक-ठाक कहा जा सकता है। इससे अधिक कर्ज होने से परेशानी बढ़ जाती है। सरकार का बजट घाटा 3 फीसदी से अधिक हो तो इसे संकट समझा जाता है। अर्थशास्त्री नवल किशोर ने बताया कि बजट 2025-26 में बिहार सरकार कुल जीडीपी का 39.1 फीसदी कर्ज ले चुकी है।
अब इसके ऊपर जाना मुश्किल होगा। बिहार का वित्तीय घाटा 3 फीसदी तय रखा गया है। इसका मतलब है कि बिहार को एक साल में जितनी कमाई होती है, केंद्र सरकार से जितने पैसे मिलते हैं। उससे अधिक होने वाला खर्च 3 फीसदी को पार नहीं करे।
यह सीमा नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनने के बाद तय की थी। हालांकि, बिहार सरकार ने पिछले वित्तीय वर्ष में इस सीमा को पार किया। वित्तीय घाटा 4.2 फीसदी तक पहुंच गया। बजट 2025-26 में इसे 2.8 फीसदी रखने का लक्ष्य है।