बर्थडे स्पेशल: वो फिल्म जिसने बदल दिया रमेश सिप्पी का करियर, जानें 'शोले' से जुड़े कुछ रोचक किस्से
By ऐश्वर्य अवस्थी | Published: January 23, 2018 11:09 AM2018-01-23T11:09:04+5:302018-01-23T18:28:54+5:30
रमेश सिप्पी की फिल्म शोले (1975) ने एक हॉल में लगातार चलने का अशोक कुमार की फिल्म 'किस्मत' (1943) को रिकॉर्ड तोड़ दिया था।
बॉलीवुड के वेटरन निर्माता-निर्देशक रमेश सिप्पी का आज (23 जनवरी) जन्मदिन है। सिप्पी ने कई हिट फिल्में दी हैं लेकिन जिस एक फिल्म से वो आज भी सबसे ज्यादा जाने जाते हैं वो है 'शोले'। शोले 1975 में 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) पर रिलीज हुई थी। बॉक्स ऑफिस पर शोले की शुरुआत ठण्डी रही थी, लेकिन कुछ ही दिनों में यह फिल्म पूरे देश में दर्शक बटोरने लगी। देखते ही देखते शोले एक ऐतिहासिक सुपर हिट फिल्म हो गई। गली-गली फिल्म के संवाद गूंजने लगे। पक्के दोस्तों को जय-वीरू कहा जाने लगा तो बक-बक करने वाली लड़कियों को बसंती की उपमा दी जाने लगी थी। कहते हैं कि फिल्म के एक संवाद के आधार पर उस समय माएं अपने छोटे बच्चों को गब्बर का डर दिखाकर तक सुलाने लगी थीं। इस फिल्म का लोगों पर बहुत गहरा असर हुआ। 38 वर्ष बाद इस फिल्म को थ्री डी में परिवर्तित कर फिर रिलीज किया गया था।
शोले का क्लाइमेक्स बदलने की थी तैयारी
जब पर्दे पर 'शोले' रिलीज हुई तो शुक्रवार और शनिवार बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म कमाई के मामले में पूरी तरह से असफल रही थी। भारी बजट की भव्य फिल्म का यह हाल देख निर्देशक रमेश सिप्पी को भी शायद ये उम्मीद नहीं थी। रिलीज के दो दिन बाद रविवार को उन्होंने अपने घर पर मीटिंग रखी जिसमें लेखक सलीम-जावेद को भी बुलाया गया। फिल्म के कमजोर प्रदर्शन का अर्थ ये निकाला गया कि अंत में अमिताभ के किरदार की मौत को दर्शक पसंद नहीं कर रहे हैं। फिल्म का बुरा हाल देखकर रमेश सिप्पी फिल्म का अंत बदलने को तक तैयार हो गए। सिप्पी ने फिल्म की नई एंडिंग की शूटिंग भी की। लेकिन शायद फिल्म के इतिहास को तो कुछ और ही मंजूर था। एक-दो दिन बाद फिल्म का प्रदर्शन बॉक्स ऑफिस पर सुधर गया और फिर बेहतर होता चला गया।
रमेश सिप्पी और सलीम-जावेद को यूं मिला 'शोले' का आइडिया
शोले फिल्म की कहानी मार्च 1973 में सलीम-जावेद ने लिखना शुरू की थी। रोजाना सुबह दस से ग्यारह बजे के बीच सलीम-जावेद तथा रमेश सिप्पी खुद को एक कमरे में बंद कर लेते थे और फिल्म की कहानी पर घंटों चर्चा करते थे लेकिन फिल्म का वह रूप नहीं मिल पा रहा था जो रमेश जी चाहते थे। सलीम-जावेद जब शोले की पटकथा लिख रहे थे तब राज खोसला की फिल्म आई थी- मेरा गांव मेरा देश (1971) और नरेन्द्र बेदी की फिल्म खोटे सिक्के भी डकैत समस्या पर आधारित थी। बस यही वो फिल्में थीं जिन्होंने सलीम-जावेद को शोले के लिए काफी आइडियाज दिए।
शोले के मेन लीड के लिए यूंं चुने गये थे आर्टिस्ट
शोले में बसंती तांगेवाली का रोल करने को तैयार नहीं थी। लेकिन रमेश सिप्पी के समझाने पर मान गईं। वहीं, जय के रोल के लिए पहले शत्रुघ्न सिन्हा का नाम फाइनल था। मगर सलीम-जावेद तथा धर्मेन्द्र ने अमिताभ का नाम सुझाया। जबकि ठाकुर के रोल के लिए प्राण के नाम पर विचार किया गया जो सिप्पी फिल्म्स की कई फिल्में पहले कर चुके थे। लेकिन रमेश सिप्पी, संजीव कुमार की प्रतिभा के कायल थे। सीता और गीता में वे संजीव के साथ काम कर चुके थे। बाद में परिणाम संजीव के पक्ष में रहा। गब्बर सिंह और सांभा के संवाद खड़ी बोली में होकर अवधी बोली का टच लिए थे। सलीम ने इस संवादों को अमिताभ और संजीव कुमार के बीच सुनाया, तो अमिताभ गब्बर का रोल करने के इच्छुक लगे। ऐसा ही कुछ संजीव कुमार के मन में भी था।
शोले के गब्बर के नामकरण की कहानी
अगर फिल्म के अंदर सबसे ज्यादा किसी ने फेम पाया तो वह थे गब्बर, जिनका रोल अमजद खान ने निभाया। लेकिन सवाल ये भी है कि आखिर 'गब्बर' नाम क्यों रखा गया। दरअसल गब्बर नाम असल में एक डाकू का था। फिल्म लेखक सलीम के पिता जी गब्बर के बारे में बताते थे। उनके पिता जी ने उनको बताया था कि कैसे गब्बर नाम के डाकू का राज्य एक गांव में चलता था। बस यहीं से उनको इस नाम का आइडिया मिल गया था।
शोले ने बनाया इतिहास
शोले फिल्म मुम्बई के मिनर्वा थिएटर में ने लगातार पांच साल तक दिखायी जाती रही। किसी भी फिल्म के एक सिनेमाघर में एक लगातार इतने लम्बे समय तक चलने का ये नया रिकॉर्ड था। इसके पहले बॉम्बे टॉकीज की फिल्म 'किस्मत' (1943) कलकत्ता में लगातार साढ़े तीन साल तक चली थी। शोले का रिकॉर्ड आदित्य चोपड़ा के निर्देशन और शाहरुख खान और काजोल के अभिनय वाली "दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे" ने तोड़ा। यह फिल्म अभी भी मुंबई के मराठा मंदिर में चल रही है।