हेमधर शर्मा
इन दिनों दुनियाभर में सरकारों के खिलाफ जेन-जी के विरोध प्रदर्शनों की खबरें सुर्खियां बन रही हैं. बांग्लादेश, नेपाल में तख्तापलट की खबरें तो पुरानी हो चुकी हैं, कई अन्य देशों में भी नवयुवकों का हुजूम सड़कों पर उमड़ रहा है. एक-दो देशों में सरकारों के खिलाफ विद्रोह हो तो समझ में आता है कि वहां के शासक निरंकुश होंगे, लेकिन दुनियाभर में अगर यही प्रवृत्ति देखने को मिल रही हो तो इसे क्या समझें? क्या पूरी दुनिया की सरकारें अचानक तानाशाह बन गई हैं?कदाचित यह पीढ़ीगत सोच का फर्क है.
आज हम जिसे ‘जेन-जी’ कह रहे हैं वे उम्र के उस पड़ाव पर पहुंचे युवा हैं जो सुनहरे भविष्य के सपने देखते हैं, परंतु जमीनी हकीकत को जब उसके विपरीत पाते हैं तो इसके लिए जिम्मेदार लोगों से विद्रोह कर बैठते हैं. ऐसा नहीं है कि दुनिया में नवयुवाओं की यह पहली बैच है जिसे लगता है कि उसके सपनों पर कुठाराघात हुआ है. सच तो यह है कि जिस पीढ़ी के खिलाफ आज जेन-जी विद्रोह कर रही है, अपनी किशोरावस्था में उसने भी ऐसे ही सपने देखे थे और अपनी अग्रज पीढ़ी के खिलाफ उसके मन में भी ऐसा ही आक्रोश था, लेकिन तब वह इस स्थिति में नहीं थी कि उनके खिलाफ संगठित विद्रोह कर पाए.
आज सोशल मीडिया के कारण ‘जेन-जी’ को एकजुट होने का जरिया मिल गया है. सवाल यह है कि आदमी इस तरह पूरा का पूरा बदल कैसे जाता है? हम मनुष्यों की याददाश्त क्या इतनी कमजोर होती है कि बीस-पच्चीस वर्ष पहले की अपनी भावनाओं को ही भूल जाएं? या फिर अपनी सुविधा के हिसाब से ही हम चीजों को भूलते या याद रखते हैं! दुनियादारी का पाठ क्या हर आदर्शवादी युवक के भीतर अरविंद केजरीवाल की तरह जमीन-आसमान का फर्क ला देता है और स्वप्नजीवियों की पूरी की पूरी पीढ़ी की ही संवेदनाएं धीरे-धीरे भोथरी होती चली जाती हैं?
रूस की साम्यवादी क्रांति में कहते हैं बहुत सारे पिता-पुत्र एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे, क्योंकि यथास्थिति के समर्थक पिता जार (राजा) की सेना में थे और बदलाव लाने के लिए बेकरार पुत्र क्रांतिकारियों की तरफ से लड़ रहे थे. तो क्या हर नई पीढ़ी बदलाव समर्थक होती है और पुरानी पीढ़ी यथास्थितिवादी?
लेकिन पुरानी बनती पीढ़ी में ऐसा क्या बदलाव आ जाता है कि हर नई पीढ़ी उससे विद्रोह करने लगती है? आखिर ऐसा क्यों होता है कि बचपन की निश्छलता धीरे-धीरे गायब होती जाती है और उम्र के एक पड़ाव के बाद तो हममें से कई मनुष्य शातिर भी बनने लगते हैं! यही काइयांपन उन्हें धीरे-धीरे नई पीढ़ी से भावनात्मक रूप से दूर करने लगता है और कई बार तो बाप-बेटे तक के बीच दूरी इतनी बढ़ जाती है कि एक ही छत के नीचे रहते हुए भी ऐसा लगता है जैसे वे अलग-अलग दुनिया में रह रहे हों!
मजे की बात तो यह है कि कथित तौर पर दुनियादार बनते-बनते हम मनुष्य पाखंड के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि अपनी कथनी और करनी के बीच बढ़ती दूरी से हमें लज्जा भी महसूस नहीं होती! मोटी चमड़ी सिर्फ नेताओं की ही नहीं होती, सच तो यह है कि एक उम्र के बाद हम सभी मनुष्यों की चमड़ी कम-अधिक मात्रा में मोटी होने लगती है. हमें यह अहसास होना बंद हो जाता है कि जो शब्द हमें मामूली चोट ही पहुंचा पाते हैं, वही बच्चों को कितनी गहराई तक बेध जाते हैं! अपने अहंकार की तृप्ति के लिए हम अपने बच्चों को क्या-क्या नहीं बनाना चाहते हैं लेकिन क्या हमें रत्तीभर भी अहसास होता है कि अपनी रुचि के एकदम प्रतिकूल होने पर भी बच्चे हमारी इच्छाओं को पूरा करने के लिए जी-जान लगा देते हैं!
और इसके बाद भी सफलता नहीं मिलने पर, हमें दु:ख पहुंचने की चिंता में जब सचमुच ही अपनी जान दे देते हैं, तब हम स्तब्ध सोचते रह जाते हैं कि गलती आखिर हुई कहां!
कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम मनुष्य इतने स्वार्थकेंद्रित हो गए हैं कि ‘सत्ता’ हाथ में होने पर जाने-अनजाने अपने बच्चों का भी अपनी इच्छाओं-महत्वाकांक्षाओं के लिए इस्तेमाल करने लगते हैं! समाज में बढ़ते वृद्धाश्रम हमारी बढ़ती स्वार्थ-वृत्ति के ज्वलंत प्रमाण हैं. जेन-जी तो फिर भी जरिया मिल जाने के कारण अपने आक्रोश को अभिव्यक्त कर पा रही है, लेकिन दुनिया के जो अन्य चर-अचर जीव हम मनुष्यों के भोग-विलास का साधन बनकर रह गए हैं, अगर वे विद्रोह करने की हालत में होते तो क्या हमें अपनी मानव जाति का अस्तित्व बचाने के भी लाले नहीं पड़ जाते?
फिर भी जैसा कि कवि वृंद कह गए हैं, ‘...रसरी आवत-जात ही, सिल पर होत निशान’ यानी लगातार प्रहार से पत्थर पर भी निशान पड़ जाता है; क्या पता निरंतर दोहन से जड़ समझी जाने वाली चीजों की सहनशक्ति भी जवाब दे गई हो और आज ग्लोबल वॉर्मिंग के रूप में मानव जाति के समक्ष जो अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है, उसके लिए हमारी यही स्वार्थपरता जिम्मेदार हो!