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विजय दर्डा का ब्लॉगः विद्रोह की आग में झुलसेंगे तानाशाह...?

By विजय दर्डा | Updated: December 5, 2022 07:26 IST

ईरान और चीन में विद्रोह के पीछे भले ही दुनिया को तात्कालिक घटनाएं नजर आ रही हों लेकिन हकीकत यह है कि वहां आजादी की आग भड़की है. यह दुर्भाग्य है कि तेजी से विकसित हो रही दुनिया में अब भी कम से कम 52 देश सीधे तौर पर तानाशाह के कब्जे में हैं. 70 प्रतिशत आबादी तानाशाही में जी रही है.

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क्या आपने पहले कभी सुना था कि किसी भी खेल की कोई टीम अंतरराष्ट्रीय मुकाबला हार जाए, उससे बाहर हो जाए और उसके ही देश में जश्न मनाया जाए..? ईरान में अभी-अभी ऐसा हुआ! फीफा वर्ल्ड कप में अमेरिका से मुकाबले के बाद जैसे ही ईरान का सफर समाप्त हुआ, ईरान में जनता सड़कों पर जश्न मनाने लगी।

जश्न मनाने वाले वो लोग थे जो अपनी फुटबॉल टीम पर जान छिड़कते रहे हैं। तो आखिर ऐसा क्या हो गया कि लोग अपनी टीम से इतने खफा हो गए? ईरान में फुटबॉल सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला खेल है और वहां की जनता चाहती थी कि टीम अंतरराष्ट्रीय मंच पर ईरान की जनता की भावनाओं का प्रदर्शन करे। ईरान में इस समय महिलाओं के लिए सख्त ड्रेस कोड का विरोध चल रहा है।

इसी साल सितंबर में 22 वर्षीय  महिला एक्टिविस्ट महसा अमीनी की मौत के बाद लोग उद्वेलित हैं। पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। महिलाएं चाहती हैं कि क्रूर ड्रेस कोड से उन्हें मुक्ति मिले इसलिए वे सोशल मीडिया पर अपने बाल काट कर, पर्दा जला कर अपने गुस्से का इजहार कर रही हैं। केवल महिलाएं ही नहीं बल्कि युवा पुरुष भी क्रूर ड्रेस कोड के खिलाफ हैं। वे भी प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं।

इस बीच हजारों लोगों को सरकारी तंत्र ने मौत के घाट उतार दिया है। इसके बावजूद आजादी की चाहत इतनी प्रबल है कि लोग सड़कों पर उतरने से बाज नहीं आ रहे हैं। ईरानी खिलाड़ियों ने जब इंग्लैंड के साथ पहले मुकाबले में राष्ट्रगान नहीं गाया था तो इसे सरकार का प्रबल विरोध माना गया था लेकिन खिलाड़ी ज्यादा समय विरोध पर कायम नहीं रह सके। माना जाता है कि उन्होंने ईरानी जनता के आक्रोश को आगे अपनी आवाज नहीं दी और लोग अपनी टीम से भी खफा हो गए।

ईरान की हालत वाकई बहुत खराब है। महिलाओं की जिंदगी वहां नरक के समान है। वहां की महिलाएं चाहती हैं कि इस्लामिक देश तुर्की में जिस तरह लड़कियां पढ़ती हैं, नौकरी करती हैं, अपनी पसंद के कपड़े पहनती हैं, वैसी ही आजादी उन्हें भी मिले। इतिहास के पन्ने टटोलें तो ईरान में हमेशा ऐसी स्थिति नहीं थी।

शाह रजा पहलवी के जमाने में महिलाओं ने बहुत तरक्की की थी। वे समाज के हर क्षेत्र में योगदान दे रही थीं लेकिन धर्मांध खोमैनी ने सत्ता संभालते ही महिलाओं को अंधेरे में कैद कर दिया। अब महिलाएं इसी अंधेरे से बाहर निकलने की भरपूर कोशिश कर रही हैं।

अब चलिए जरा नजर डालते हैं चीन में विद्रोह पर। कोविड के कारण लगे लॉकडाउन के दिनों को आप भूले नहीं होंगे। लोग भारी तकलीफ में थे। घर नहीं पहुंच पा रहे थे। बहुत से लोगों को ठीक से खाना पानी और दवाइयां नहीं मिल पा रही थीं। घर पहुंचने के लिए लोगों ने कई सौ किलोमीटर का सफर तय किया। लेकिन कहीं भी सरकार के खिलाफ विद्रोह की कोई आवाज नहीं उठी क्योंकि सरकार की मंशा पर किसी को शक नहीं था।

चीन में ऐसा नहीं है। वहां कोविड के नाम पर लोगों के असंतोष को दबाने के लिए उन्हें घरों में बंद किया जा रहा है इसलिए लोग विद्रोह पर उतर आए हैं। पिछले महीने आईफोन कंपनी के परिसर में मजदूरों ने जो तोड़फोड़ की, उसने ज्वाला को भड़का दिया। इसके पहले बैंकों में लोगों के पैसे डूबने को लेकर भी आक्रोश की स्थिति बनी थी। तब बैंकों के सामने टैंक खड़ा करके लोगों को भयभीत किया गया था।

दरअसल लोग शी जिनपिंग के शासन में बढ़ती तानाशाही और क्रूरता से तंग आ चुके हैं। यही कारण है कि जब विद्रोह वाले इलाकों को कोविड के नाम पर सील करने की कोशिश की गई तो दूसरे इलाकों में भी विद्रोह फैल गया। इस विद्रोह के पीछे केवल तात्कालिक घटनाएं नहीं हैं बल्कि आजादी की प्रबल मांग है। लोग देख रहे हैं कि चीन का नाम पूरी दुनिया में रौशन करने वाले जैक मा को किस तरह से तबाह करने की कोशिश की गई क्योंकि वे शी जिनपिंग की नीतियों की यदाकदा आलोचना करने लगे थे।

अब तो लोगों को लगने लगा है कि मौजूदा शासन प्रणाली माओत्से तुंग से भी ज्यादा क्रूर है।चीनी जनता इस बात को भी नहीं भूली है कि 1989 में लोकतंत्र बहाली को लेकर जो आंदोलन हुआ था उसे कम्युनिस्ट शासन ने किस तरह कुचल दिया था। थ्येन आनमन चौक पर हजारों युवा प्रदर्शनकारियों को एक झटके में मौत के घाट उतार दिया गया था। उस घटना के बावजूद आज लोग सरकार से नहीं डर रहे हैं। विरोध करने वालों का अपहरण हो रहा है। उनकी हत्या की जा रही है। क्रूरता के सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।

सरकारी तंत्र को तात्कालिक तौर पर लग रहा है कि शी जिनपिंग ने विद्रोह पर काबू पा लिया है लेकिन वास्तविकता इसके उलट है। विद्रोह की प्रबल आग धधक रही है। सवाल है कि विद्रोह को कब सफलता मिलेगी और क्या मिलेगी भी..?तानाशाही के कब्जे में केवल ईरान और चीन की जनता ही नहीं है। लैटिन अमेरिका से लेकर एशिया, मिडिल ईस्ट और अफ्रीका तक कम से कम 52 देशों में सीधे तौर पर तानाशाहों का शासन है।

इसके अलावा पाकिस्तान और रूस जैसे देश भी हैं जिन्हें आप तकनीकी तौर पर भले ही तानाशाही के दायरे में न रखें लेकिन वहां की शासन प्रणाली भी तानाशाही जैसी ही है। क्या रूस में कोई पुतिन के खिलाफ बोल सकता है? स्वीडन की फ्रीडम रिपोर्ट की मानें तो दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी किसी न किसी रूप में तानाशाही का सामना कर रही है।

अमेरिका जैसे देश में भी काले नस्ल के लोगों के साथ रंगभेद होता है। यह भी तो तानाशाही का ही रूप है। ..लेकिन एक उम्मीद हर जगह पल रही है कि किसी न किसी दिन आजाद जरूर होंगे। आजादी की चाहत को कभी मिटाया नहीं जा सकता। हम उम्मीद करें कि एक दिन पूरी दुनिया आजादी की सांस ले सकेगी जहां शासन प्रणाली में कोई क्रूरता नहीं होगी। हम वाकई खुशनसीब हैं कि हम आजाद हैं..!

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