राजेश बादल का ब्लॉग: विस्फोटकों के बोझ तले शांति वार्ता के संकल्प
By राजेश बादल | Published: June 10, 2020 08:48 PM2020-06-10T20:48:45+5:302020-06-10T20:48:45+5:30
एशिया के इन दोनों बड़े देशों के बीच गहरे अविश्वास का एक कारण पाकिस्तान भी है. दरअसल पाकिस्तान का अस्तित्व ही तब तक है, जब तक वह हिंदुस्तान के बारे में शत्रु भाव पालता रहेगा. जिस दिन उसने भारत से दोस्ती बढ़ाई, वह एक तरह से भारत का दूसरा रूप बन जाएगा.
चीन और भारत के बीच सीमा पर तनाव घटाने के लिए बातचीत गंभीर थी. पहली बार सेना अध्यक्ष के ठीक नीचे स्तर वाले अधिकारियों के बीच इस बार यकीनन ठोस चर्चा हुई. पांच घंटे चली शिखर वार्ता में दोनों पक्षों की ओर से तत्काल कोई टिप्पणी नहीं आई.
भारतीय विदेश मंत्रलय ने चौबीस घंटे बाद बयान जारी किया. इसमें कहा गया है कि एशिया के दोनों बड़े मुल्क सीमा पर शांति बनाए रखने पर सहमत हैं और यह भी कि आइंदा भी आपसी चर्चा से मामले सुलझाए जाएंगे. निश्चित रूप से इस बयान का स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन दूसरी ओर परस्पर सहमति के अगले दिन रविवार को चीनी सेना ने सीमा-रेखा के पास युद्ध अभ्यास का वीडियो जारी किया. यानी शांति और जंग की रिहर्सल फिल्म एक साथ दिखाकर चीन भारत को सतर्कता-संदेश भी देना चाहता है? नहीं भूलना चाहिए कि एक पखवाड़े पहले ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने फौज से सैनिकों का प्रशिक्षण कार्यक्र म तेज करने और जंग के लिए तैयार रहने के लिए कहा था.
असल में हिंदुस्तान और चीन के बीच कड़वाहट और मतभेद की जड़ें इतनी गहरा गई हैं कि अब सद्भाव और शांति के सारे प्रयास बहुत सतही लगने लगे हैं. यह ठीक है कि 1967 के मिनी खूनी संघर्ष के बाद गोली नहीं चली है. उस छोटे से युद्ध में भारत ने 65 और चीन ने 300 सैनिक खोए थे. यह 1962 के सिर्फ पांच बरस बाद हुआ था और चीन को अंदाजा हो गया था कि हिंदुस्तान पांच साल में काफी बदल चुका है. उसके बाद से वह भारत को घेराबंदी और अन्य कूटनीतिक चालों से दबाव में रखता रहा है.
सीधे युद्ध में उसे भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा. शतरंज पर चीन की शातिर चालें निश्चित रूप से परेशान करती रही हैं. भारतीयों ने इसी वजह से उस पर कभी पूरा भरोसा नहीं किया. अगर बड़ा वर्ग यह मानता है कि भारत को पाकिस्तान की तुलना में चीन के प्रति अधिक गंभीर रहना चाहिए तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है. 58 साल पहले की जंग का विजय भाव चीन को आज भी दंभी बनाए हुए है. इसी वजह से वह भारत के प्रति दोहरा चरित्र प्रदर्शित करता
रहा है.
एशिया के इन दोनों बड़े देशों के बीच गहरे अविश्वास का एक कारण पाकिस्तान भी है. दरअसल पाकिस्तान का अस्तित्व ही तब तक है, जब तक वह हिंदुस्तान के बारे में शत्रु भाव पालता रहेगा. जिस दिन उसने भारत से दोस्ती बढ़ाई, वह एक तरह से भारत का दूसरा रूप बन जाएगा. पाकिस्तानी फौज तब बेमानी हो जाएगी. अपने हितों की खातिर ही वह पाकिस्तान नामक मुल्क को पालती-पोसती रहती है और वहां जम्हूरियत नहीं पनपने देती. उसे पता है कि जंग के मैदान में वह जीत नहीं सकती. इस कारण चीन को भी मंथरा की तरह भड़काने का काम उसकी ओर से होता रहा है. अपने कब्जे वाले कश्मीर का बड़ा इलाका उपहार में देने और ग्वादर बंदरगाह चीन को सौंपने के पीछे पाकिस्तान की मंशा यही है. वह एक ऐसा नकारात्मक उत्प्रेरक है, जो न खुद हिंदुस्तान से अच्छे रिश्ते रखना चाहता है और न चीन-भारत को करीब आने देता है. इस प्रसंग में उसकी कूटनीति तनिक कामयाब दिखाई देती है. आज का नेपाल भी इसी पाकिस्तान का लघु संस्करण बनता जा रहा है.
तो हिंदुस्तान अब क्या करे? आधुनिक विश्व में किसी देश के समक्ष इतने जटिल समीकरण शायद ही होंगे, जितने भारतीय मंच पर हैं. इसमें एक बाधा परसेप्शन यानी धारणा की भी है. इसे मानने से कोई इनकार नहीं करेगा कि भारत की बड़ी आबादी दिमाग से नहीं, दिल से सोचती है. जैसे ही चीन सीमा पर कुछ असाधारण हलचल होती है, हर भारतीय सीधे युद्ध के मोर्चे पर पहुंच जाता है. उसका प्रतिबिंब मीडिया के सारे अवतारों में दिखाई देता है. एकबारगी हालिया प्रचार माध्यमों के चीन सीमा विवाद कवरेज को याद कीजिए. उत्तेजक और भड़काने वाले कार्यक्रम जेहन में उभरते हैं.
कोई चैनल चीन को चीर देना चाहता है तो कोई सीधा बीजिंग पर मिसाइल की मार करता है. कहीं चीन का काल बन जाने के दावे दिखते हैं तो कोई 1962 का बदला लेने और चीन को सबक सिखाने की बात करता है. उपग्रह संकेतों के दौर में ये कार्यक्र म समंदर पार भी जाते हैं. और न भी जाएं तो चीनी राजदूत कोई फल खाने के लिए दिल्ली में नहीं बैठा है.
ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है कि क्या आज संसार की सबसे बड़ी आबादी वाले दो राष्ट्रों के बीच जंग इतनी आसान है? अगर हम 1962 के हिंदुस्तान नहीं हैं तो चीन भी साठ साल पुराना देश नहीं रहा है. भारत तो महाशक्ति होने की कतार में है, लेकिन चीन तो बहुत पहले दुनिया को अपनी ताकत का लोहा मनवा चुका है. प्रचार माध्यमों के अलावा भारतीय सेना की ओर से भी चीन को लेकर बड़े उत्तेजक बयान आए हैं. जैसे भारतीय सेना एक साथ दो मोर्चो पर लड़ने के लिए तैयार है. क्या यह नहीं माना जाए कि चीन ने इसे ध्यान में रखते हुए ही नेपाल की ओर से एक तीसरा मोर्चा खुल जाने दिया है.
नेपाल ने कहा है कि वह एक-एक इंच जमीन लड़कर लेगा. तो आखिर भारतीय सेना दो या तीन मोर्चो पर युद्ध की बात करती ही क्यों है? जो भी तैयारी करनी है, खामोशी से करते रहिए. पब्लिसिटी स्टंट बनाने से देश की उलझन बढ़ती है, कम नहीं होती. कल को किसी ने तीन मोर्चो पर लड़ने की क्षमता का बयान दे दिया तो फिर चीन दक्षिण में श्रीलंका से ऐसा ही रवैया अख्तियार करने को कहेगा. श्रीलंका ने भी तो हंबनटोटा बंदरगाह चीन को दे दिया है. फिर क्या भारत चार मोर्चो पर लड़ने की तैयारी करेगा? भारत-चीन को समझना होगा कि जंग किसी समस्या का समाधान नहीं है. जंग तो खुद अपने आप में समस्या है.