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रहीस सिंह का ब्लॉगः भारत का साथ पाना अमेरिका की जरूरत

By रहीस सिंह | Updated: September 24, 2021 12:58 IST

बताया जा रहा है कि ऑकस घोषित रूप से तो आधुनिक रक्षा प्रणालियों जैसे साइबर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कम्प्यूटिंग और समुद्र के भीतर की क्षमताओं के विकास के लिए काम करेगा।

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ठळक मुद्देबीते दिनों अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के बीच एक नया गठबंधन निर्मित हुआऑकस नाम के इस गठबंधन से पहले भी इंडो-पैसिफिक में दो गठबंधन अथवा साङोदारियां थीं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऐसे समय में अमेरिका यात्र हो रही है, जब अमेरिका अफगानिस्तान से थक कर वापस लौट चुका है, नए वल्र्ड ऑर्डर की चर्चाएं चल रही हैं और तालिबान के काबुल पर काबिज होने के बाद दुनिया एक बार फिर से आतंकवाद के भय को महसूस कर रही है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या जो बाइडेन भारत की महत्ता को उसी तरह से महसूस करेंगे जिस प्रकार उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति मानते रहे हैं। क्या राष्ट्रपति जो बाइडेन भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ उसी प्रकार के रिश्ते कायम करना चाहेंगे जैसे कि बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रम्प के थे। अंतिम सवाल यह कि क्या अमेरिका भारत के साथ वैसी ही स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप और गर्मजोशी के साथ आगे बढ़ना चाहेगा जो कि बराक ओबामा और ट्रम्प के समय कायम थी?

बीते दिनों अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के बीच एक नया गठबंधन निर्मित हुआ। ऑकस नाम के इस गठबंधन से पहले भी इंडो-पैसिफिक में दो गठबंधन अथवा साझेदारियां थीं। इनमें से एक है-‘फाइव आइज’ जो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, कनाडा और न्यूजीलैंड के बीच बना है और दूसरा है ‘क्वाड’ जो कि भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच बना है। सवाल यह है कि क्या अमेरिका अभी भी एक अनिश्चित विदेश नीति के सहारे आगे बढ़ रहा है? यदि ऐसा नहीं है तो क्या अमेरिका इस बात पर गंभीरता से विचार कर पा रहा है कि टेरिटोरियल पॉवर्स के बिना वह चीन पर स्थायी दबाव नहीं बना सकता। क्या जो बाइडेन कर्ट कैंपबेल की रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ना चाहेंगे जो ओबामा काम में इंडो-पैसिफिक के अध्ययन के बाद तैयार की गई थी? 

बताया जा रहा है कि ऑकस घोषित रूप से तो आधुनिक रक्षा प्रणालियों जैसे साइबर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्वांटम कम्प्यूटिंग और समुद्र के भीतर की क्षमताओं के विकास के लिए काम करेगा। लेकिन यह इतना सीधा रणनीतिशास्त्र नहीं हो सकता। हिंद-प्रशांत की प्रत्येक अमेरिकी रणनीति चीन को ध्यान में रखकर ही बनाई जाती है लेकिन क्या यह फ्रांस और भारत के बिना सफल हो पाएगी? स्पष्टत: नहीं। आर्थिक ताकत बनने के बाद चीन जिस प्रकार से अपनी सैन्य ताकत का प्रदर्शन कर क्षेत्रीय शक्ति से महाशक्ति की ओर बढ़ने के लिए ‘प्रेशर डिप्लोमेसी’ का इस्तेमाल कर रहा है उससे सारी दुनिया परिचित है। चीन द्वारा उठाए जाने वाले कदम दिखाते हैं कि वह उसी महादानव के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करने लगा है जिसके विषय में कभी नेपोलियन बोनापार्ट ने घोषणा की थी। इसका अर्थ है कि चीन के खिलाफ अमेरिका बिना भारत के सफल लड़ाई नहीं लड़ सकता।

दरअसल अमेरिका को अब यह मानकर नीति और मित्र बनाने होंगे अथवा उनमें वैल्यू एडीशन करना होगा कि वह अब सुपर पॉवर नहीं है बल्कि पॉवर एक्सिस में अब तीन धुरियां (पोल्स) हैं- वाशिंगटन, बीजिंग और मॉस्को। मूल प्रतिस्पर्धा वाशिंगटन और बीजिंग के बीच है। हालांकि वाशिंगटन और बीजिंग काफी समय से आमने-सामने दिख रहे हैं खासतौर से ट्रेड वॉर को लेकर। लेकिन अमेरिका तथा चीन के बीच जितने मूल्य का वस्तुओं और सेवाओं का व्यापार हो रहा है और वह भी अमेरिका के पक्ष में भारी असंतुलन के साथ, वह तो कुछ और ही बताता प्रतीत होता है। वैसे ट्रेड वॉर को जितना सामान्य और एकल रेखीय (यूनिलीनियर) दिखाया गया, वैसा वह है नहीं। इसमें अनदेखे या अदृश्य आयाम ज्यादा प्रभावशाली हैं, जैसे- जियोपॉलिटिक्स, जियोस्ट्रेटेजी, वॉर टैक्टिक्स है और चीन की एकाधिकारवादी-नवसाम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की दृष्टि से सॉफ्ट वॉर की रणनीति। चूंकि मॉस्को-बीजिंग बॉन्ड काफी मजबूत है और दमिश्क, तेहरान, इस्लामाबाद, प्योंगयांग आदि इसके प्रभाव में हैं, इसलिए बाइडेन की राह शायद आसान नहीं होगी।

जहां तक भारत के साथ रिश्तों की बात है तो राष्ट्रपति ट्रम्प और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दोस्ती को कुछ विचारकों ने असामान्य परिधियों तक देखा और स्वीकार किया था। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत अमेरिका का नेचुरल पार्टनर या मेजर डिफेंस पार्टनर बना। भारत ने अमेरिका के साथ डोनाल्ड ट्रम्प रेजीम में तीन बुनियादी समझौते किए जिसमें लिमोआ, कॉमकासा और बेका शामिल हैं। गैर नाटो देश होते हुए भी अमेरिका ने भारत को एसटीए-1 की सुविधा दी। यह पहली बार किसी गैर नाटो देश के रूप में भारत को दी गई। ऐसा नहीं कि इस दौर में दोनों देशों के बीच टकराव की स्थिति नहीं बनी। लेकिन कुल मिलाकर भारत अमेरिका द्विपक्षीय रिश्तों में सकारात्मकता के लिए स्थान बहुत ज्यादा है, अवसर भी ज्यादा हैं और सफलता की संभावनाएं भी।

यह अलग बात है कि इनमें ‘यूनिटी फॉर पीस’ के साथ-साथ ‘स्ट्रेटेजी फॉर वार’ को अधिक महत्व देने की आवश्यकता है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्वाड देशों के पहले वचरुअल सम्मेलन में ही कह चुके हैं कि, ‘‘हमलोग अपने साझा मूल्यों को आगे बढ़ाने और एक सुरक्षित, स्थायी और समृद्ध हिंद-प्रशांत क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए पहले की तुलना में और ज्यादा साथ मिलकर काम करेंगे।’ इसलिए क्वाड की आगे की राह जो बाइडेन, स्कॉट मॉरिसन और योशिहिदे सुगा की सक्रियता पर निर्भर करेगी। जहां तक भारत अमेरिका द्विपक्षीय रिश्तों की बात है तो हमें अभी जो बाइडेन की इस बात पर भरोसा करना होगा कि भारत अमेरिका का नेचुरल फ्रेंड है। वैश्विक जरूरतें, विशेषकर इंडो-पैसिफिक की, आगे भी उन्हें इसके अनुपालन के लिए बाध्य करती रहेंगी।

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