ब्लॉग: पाक की सियासत और चूहे-बिल्ली का खेल
By राजेश बादल | Published: March 5, 2024 11:16 AM2024-03-05T11:16:20+5:302024-03-05T11:18:10+5:30
सवाल यह है कि पाकिस्तान की नई सरकार भारत के साथ आगे कैसे बढ़ेगी? शाहबाज शरीफ ने तो प्रधानमंत्री बनते ही भारत के साथ शत्रुता भरे बयान देने शुरू कर दिए हैं। वे कश्मीर राग अलापने लगे हैं।
पाकिस्तान में शाहबाज शरीफ एक बार फिर प्रधानमंत्री के ओहदे पर हैं। इस बार भी वे फौज के कंधों पर सवारी करते हुए सत्ता में आए । यदि सेना समर्थन नहीं करती तो मुल्क फिर अंधी सियासी सुरंग में समा जाता। पिछले गठबंधन के कड़वे अनुभव पीपल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) भूल नहीं पाए थे कि उनकी नियति ने फिर संयुक्त सत्ता संभालने पर मजबूर कर दिया। चुनाव नतीजों ने सेना के लिए भी कोई विकल्प नहीं छोड़ा था।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने जेल में रहते हुए जिस तरह अपनी पार्टी का नेतृत्व किया, उसी का परिणाम था कि अवाम ने जनादेश तहरीके इन्साफ को दिया. इमरान को अस्त्र-शस्त्र विहीन कर दिया गया। उन्हें चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया गया, उनकी पार्टी का चुनाव चिह्न छीन लिया गया। एक तरह से फौज ने वे सारे प्रबंध कर दिए थे, जो शरीफ बंधुओं की पार्टी को वाकओवर दिलाने के लिए काफी थे। यहां तक कि लंदन में बीमारी से कराह रहे नवाज शरीफ तक को उछलते हुए आकर चुनाव प्रचार करने की छूट दिला दी।
इसके बाद भी यदि मतदाताओं ने उनके प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई तो क्या किया जा सकता है? यह एक तरह से फौज की पराजय ही है। मगर, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सत्ता के लिए अपना प्रधानमंत्री चुनती है और जब वह प्रधानमंत्री उड़ान भरने लगता है तो सेना उसके नीचे से जाजम खींच लेती है।
असल में भुट्टो और शरीफ खानदानों में हमेशा टकराव रहा है. इसके बावजूद दोनों किसी न किसी दौर में फौज की गोद में बैठते रहे हैं। सेना इस टकराव का लाभ उठाती रही है। दोनों कुनबों की फौज से प्यार और तकरार की दास्तान बड़ी दिलचस्प है। एक जमाने में नवाज शरीफ तो सैनिक तानाशाह जनरल जिया उल हक के चहेते थे। जब 1985 में पंजाब के चुनाव हुए तो फौज के समर्थन से नवाज शरीफ ने चुनाव जीता और जिया ने ही उन्हें पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया था। भुट्टो ने प्रधानमंत्री रहते हुए मिलों का राष्ट्रीयकरण किया था तो शरीफ परिवार की दुधारू स्टील मिल हाथ से निकल गई थी। इसके बाद नवाज ने कभी भुट्टो को पसंद नहीं किया।
यहां तक कि जब जिया ने भुट्टो को फांसी दी तो नवाज ने उनकी आत्मा के लिए दुआ करने से इनकार कर दिया था। इसके बाद भी मियां नवाज सेना के इशारों पर नाचते रहे। उसका परिणाम उन्हें 1990 के चुनाव में मिला। नवाज शरीफ सेना के इशारे पर प्रधानमंत्री बन गए थे। तत्कालीन आईएसआई प्रमुख जनरल असद दुर्रानी ने तो चुनाव के बाद खुलासा कर दिया था कि उन्होंने बेनजीर की पार्टी के खिलाफ गुप्त बजट से छह करोड़ रुपए खर्च किए थे और नवाज शरीफ को प्रचार के लिए करोड़ों रुपए की सहायता दी थी। मतगणना में भी बड़े पैमाने पर धांधली हुई थी। तब कहीं जाकर नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बन पाए थे।
कुछ दिन फौज के साथ हनीमून के बाद दोनों का एक-दूसरे से मोहभंग हो गया। फौज बेहद आक्रामक अंदाज में कश्मीर समस्या निपटाना चाहती थी. नवाज हिचक रहे थे। वे भारत से अच्छे रिश्ते चाहते थे। फौज कश्मीर में आतंकवाद को शह देती रही। नवाज बचते रहे. फासला बढ़ता गया और 1993 में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया चुनाव हुए। बेनजीर भुट्टो फिर प्रधानमंत्री बन गईं लेकिन 1997 के चुनाव में फिर नवाज शरीफ को मौका मिला. सत्ता संभालते ही नवाज शरीफ की सेना से फिर ठन गई।
सेनाध्यक्ष जहांगीर करामत से मतभेद सामने आए। नवाज भारत से अच्छे रिश्ते चाहते थे। फौज विरोध में थी आखिरकार जहांगीर को हटा दिया गया और नवाज शरीफ परवेज मुशर्रफ को इस पद पर ले आए। परवेज मुशर्रफ ने कारगिल कांड कराया और नवाज शरीफ की किरकिरी हुई। मतभेद यहां तक बढ़े कि नवाज शरीफ को मुशर्रफ ने गद्दी से उतार दिया। जब 2008 के चुनाव आए तो मतदाताओं ने भुट्टो की पीपुल्स पार्टी और नवाज शरीफ की पीएमएल-एन को चुना मुशर्रफ की पार्टी फिसड्डी रही।
इसके बाद वे परदेस भाग गए। नवाज और जरदारी की पार्टियों की आपस में कभी नहीं बनी, मगर मुशर्रफ के खिलाफ दोनों एक हो गए. जरदारी राष्ट्रपति बने। कुछ दिन बाद ही उनके नवाज से मतभेद शुरू हो गए। जब 2013 के चुनावों का ऐलान हुआ तो मुशर्रफ लौट आए लेकिन अदालत ने उन्हें चुनाव के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। उन्हें भगोड़ा घोषित कर दिया गया और वे गिरफ्तार कर लिए गए. इस बार चुनाव में फिर नवाज शरीफ को अवसर मिला। वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बने लेकिन फौज और न्यायपालिका से ठन गई। परिणाम यह कि पद से इस्तीफा देना पड़ा, चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित किया गया।
वे बेटी दामाद के साथ जेल में थे. फायदा इमरान खान ने उठाया। फौज ने उन पर हाथ रख दिया पर हनीमून लंबा नहीं चला। इमरान ने सेना की धुन पर नाचना बंद कर दिया। इसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। पद छोड़ना पड़ा और वे अब जेल में हैं। शाहबाज शरीफ प्रधानमंत्री पद पर हैं। चूंकि नवाज शरीफ को फौज से बैर मोल लेने की पुरानी आदत थी, इसलिए सेना इस बार उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाना चाहती थी। पार्टियों और सेना के बीच इस चूहे-बिल्ली के खेल में पाकिस्तान के अपने हित हाशिये पर जाते रहे हैं।
सवाल यह है कि पाकिस्तान की नई सरकार भारत के साथ आगे कैसे बढ़ेगी? शाहबाज शरीफ ने तो प्रधानमंत्री बनते ही भारत के साथ शत्रुता भरे बयान देने शुरू कर दिए हैं। वे कश्मीर राग अलापने लगे हैं। वे कहते हैं कि कश्मीर मसले पर हमारा खून खौल रहा है। ढुलमुल नीतियों के चलते वे दो कदम आगे चलते हैं तो चार कदम पीछे चलते हैं। सोलह महीने चली उनकी गठबंधन सरकार ने और उससे पहले इमरान खान की हुकूमत ने देश को आर्थिक बिखराव के जिस हाल में पहुंचा दिया है, उससे उबरने के लिए पाकिस्तान को बहुत मेहनत करनी होगी। उसे समझना होगा कि अंततः भारत ही उसकी प्राणवायु है भारत के बिना उसकी गति नहीं है।