राजेश बादल का ब्लॉग: अमेरिकी लोकतंत्र पर मंडराते चिंता के बादल

By राजेश बादल | Updated: July 30, 2024 12:21 IST2024-07-30T12:20:43+5:302024-07-30T12:21:53+5:30

ट्रंप स्वभाव से अलोकतांत्रिक हैं - इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मुझे उनके हालिया बयान का संदर्भ देने की आवश्यकता नहीं है. उनका पिछला कार्यकाल भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि वे केवल पैसे की भाषा समझते हैं.

Clouds of worry looming over American democracy | राजेश बादल का ब्लॉग: अमेरिकी लोकतंत्र पर मंडराते चिंता के बादल

राजेश बादल का ब्लॉग: अमेरिकी लोकतंत्र पर मंडराते चिंता के बादल

Highlightsघायल शेर की तरह दहाड़ रहे डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका की राजनीति को अब कहां ले जाना चाहते हैं?वे कहते हैं कि अनुदार ईसाइयों ने उन्हें इस बार वोट दे दिया तो फिर कभी वोट देने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी. वैसे डोनाल्ड ट्रंप अपने झूठे और अनुचित कथनों के आधार पर संसार के किसी भी गपोड़ी राजनेता से होड़ ले सकते हैं.

घायल शेर की तरह दहाड़ रहे डोनाल्ड ट्रंपअमेरिका की राजनीति को अब कहां ले जाना चाहते हैं? वे कहते हैं कि अनुदार ईसाइयों ने उन्हें इस बार वोट दे दिया तो फिर कभी वोट देने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी. जाहिर है कि उनका यह कथन अमेरिका ही नहीं, समूचे वैश्विक लोकतंत्र के लिए खतरनाक है. केवल संविधान के मुताबिक निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार चुनाव करा लेना ही जम्हूरियत की निशानी नहीं है. 

लेकिन इन दिनों लोकतंत्र की यही परिभाषा मान ली गई है. एक तंत्र जिस निर्वाचन प्रक्रिया के तहत अपना जनप्रतिनिधि चुनता है, उसे स्वभाव से भी लोकतांत्रिक होना आवश्यक होता है. क्या अमेरिका का भद्र लोक डोनाल्ड ट्रंप के इस बयान की मंशा को समझने का प्रयास करेगा? यदि उसने इस कथन में छिपी खतरनाक चेतावनी को नहीं समझा तो अमेरिका ही नहीं, कई देशों को इसके प्रतिकूल परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं.

वैसे डोनाल्ड ट्रंप अपने झूठे और अनुचित कथनों के आधार पर संसार के किसी भी गपोड़ी राजनेता से होड़ ले सकते हैं. वाॅशिंगटन पोस्ट के एक शोध के मुताबिक ट्रंप ने राष्ट्रपति रहते हुए 30572 से अधिक झूठ बोले. झूठ का यह आंकड़ा प्रतिदिन औसतन 21 पर जाकर ठहरता है. एक दिन में जो सार्वजनिक जनप्रतिनिधि इतने झूठ बोले, क्या उस पर संसार का कोई सभ्य लोकतांत्रिक समाज भरोसा कर सकेगा? 

इसी कड़ी में टोरंटो स्टार ने जनवरी 2017 से लेकर जून 2019 तक ट्रंप के झूठों का संकलन किया और पाया कि उन्होंने 5276 बार झूठ बोला. यह औसतन 6 झूठ प्रतिदिन है. ट्रंप को पराजित करने वाले बाइडेन भी असत्य बोलने में उस्ताद हैं. उनके झूठ की कहानियां अमेरिका में प्रचलित हैं. स्थापित धारणा है कि लोकतंत्र सत्य और भरोसे की पूंजी से चलता है और झूठ बोलने वाले लोकतंत्र पर यकीन नहीं करते. 

कह सकते हैं कि अमेरिका अब सच पर आधारित गणतंत्र की अवधारणा से पीछे हट रहा है. सवाल इसका नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप जीतेंगे या नहीं. वे जीतें या पराजित हों, विश्व बिरादरी की चिंता इस बात पर है कि संसार के सबसे आधुनिक और संपन्न लोकतंत्र के मतदाता क्या एक ऐसे व्यक्ति के हाथों में अपने मुल्क की बागडोर सौंपेंगे, जो स्वभाव से ही अलोकतांत्रिक है. 

ट्रंप स्वभाव से अलोकतांत्रिक हैं - इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मुझे उनके हालिया बयान का संदर्भ देने की आवश्यकता नहीं है. उनका पिछला कार्यकाल भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि वे केवल पैसे की भाषा समझते हैं. उनको इससे कोई मतलब नहीं है कि औसत अमेरिकी नागरिक के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा कितनी महत्वपूर्ण है. 

उन्हें इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि अमेरिका अपने जिस लोकतंत्र की वकालत करता दिखाई देता है, उस पर सारा संसार क्या सोचता है. लेकिन उनके कथन या व्यवहार से फर्क उन देशों को पड़ता है, जो उस पर बहुत कुछ निर्भर दिखाई देते हैं. इनमें कनाडा, यूरोपीय देश और अन्य पिछलग्गू मुल्कों के विचार का समय अवश्य आ गया है कि अमेरिका एक लोकतांत्रिक धुरी के रूप में उनके हितों की हिफाजत करने की जगह छोड़ता जा रहा है. 
आज का अमेरिका वह नहीं रहा है, जो विश्व को अंतरराष्ट्रीय मान्य संस्थाओं से जोड़कर रखता था, द्विपक्षीय मतभेद की स्थितियों में प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर निर्णायक सरपंची राय प्रकट करता था और अपने प्रभाव से एक लचीला संतुलन बनाकर रखता था. आज का अमेरिका विकासशील देशों को सिर्फ इसलिए जोड़कर रखता है कि वे उसके लिए एक बाजार मात्र हैं. उन बाजारों से धन मिलता है. 

जहां से धन नहीं मिलता, वहां वह कुटिलतापूर्वक अपने मित्र राष्ट्रों की मदद से अपनी आर्थिक सेहत सुनिश्चित करता है. ब्रिटेन जैसे कुछ राष्ट्र भक्तिभाव से उसके पीछे लगे रहते हैं तो कुछ इसे बेमन से या अनमने अंदाज में स्वीकार करते हैं. शायद दुनिया के विशिष्ट आभिजात्य क्लब में बने रहने के लिए. कुछ देश अपनी आर्थिक सुरक्षा के मद्देनजर भी ऐसा करते हैं. 

पर, अमेरिका का बदलता रवैया धीरे-धीरे पिछलग्गू मुल्कों के लिए भी चिंता का सबब बन रहा है. इसकी बानगी रूस व यूक्रेन की जंग में इन देशों की भूमिका से मिलती है. यूक्रेन का साथ देने में नाटो के कुछ सदस्य देश अनिच्छापूर्वक अमेरिका के पक्ष में खड़े हैं. यूक्रेन को सहायता दान या अनुदान नहीं है, बल्कि बाद में यही देश यूक्रेन से इस पैसे को मय ब्याज के वसूलेंगे. 

यूक्रेन के नागरिक भी देश में युद्ध आपातकाल के कारण एक सक्षम और योग्य राष्ट्रपति को चुनने से वंचित हैं. अमेरिकी क्लब का दबाव उन्हें जेलेंस्की जैसे कठपुतली राष्ट्रपति को बनाए रखने पर मजबूर है. क्या पिछले वर्षों में अफगानिस्तान और इराक समेत कई राष्ट्रों की दुर्दशा के हम साक्षी नहीं हैं?
यह प्रश्न सिर्फ अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों का ही नहीं है. यह तमाम देशों में लोकतंत्र के लिए चुनौती भी है. 

पिछली शताब्दी में कई राष्ट्रों ने अपनी शासन प्रणाली में लोकतंत्र को अपनाया है. यह लोकतंत्र कामयाबी से आगे बढ़ता रहा है. भारत जैसा विराट मुल्क इसका उदाहरण है. लेकिन जिन देशों ने जम्हूरियत के साथ खिलवाड़ किया और फौजी हुकूमत अथवा अधिनायकवाद को मंजूर किया, उसके दुष्परिणाम भी उन्होंने देखे हैं. पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, अफगानिस्तान और म्यांमार जैसे भारत के पड़ोसी देश इसकी उम्दा बानगी हैं. 

अमेरिका और भारत संसार के बड़े जम्हूरियत पसंद राष्ट्र हैं. यह दोनों पहिये लोकतंत्र की गाड़ी को खींच रहे हैं. यदि एक पहिया कमजोर हुआ तो विश्व के लोकतांत्रिक आसमान पर घने संकट के बादल छाएंगे और आसानी से उनके छंटने की आशा नहीं दिखती.

 

Web Title: Clouds of worry looming over American democracy

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