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Canada: कनाडा के विषैले तीरों से मुकाबला आसान नहीं?, 28 अप्रैल को होने जा रहे आम चुनाव

By राजेश बादल | Updated: March 26, 2025 05:15 IST

Canada: कनाडा सुरक्षा खुफिया सेवा की एक निदेशक वैनेसा लॉयड ने औपचारिक तौर पर आरोप लगाया कि भारत जैसा शत्रु देश इन चुनावों में दखल देने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करेगा.

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ठळक मुद्देभारत इसमें सक्षम है. वह ऐसा कर सकता है और उसका इरादा भी है. लॉयड ने ऐसा ही आरोप रूस, चीन और पाकिस्तान पर भी लगाया है.रूस, चीन और पाकिस्तान के साथ फिलहाल उतनी गंभीर समस्या नहीं है.

Canada: भारतीय इतिहास में कभी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि उसने कनाडा को कभी दुश्मन देश बताया हो. लेकिन कनाडा ने मान लिया है कि हिंदुस्तान को वह शत्रु देश मानता है. यह अजीब लगता है, मगर सच है. सोमवार को कनाडा की खुफिया संस्था सीएसआईएस ने बाकायदा संवाददाता सम्मेलन में आरोप लगाया कि भारत कनाडा में 28 अप्रैल को होने जा रहे आम चुनाव में हस्तक्षेप करने जा रहा है. कनाडा सुरक्षा खुफिया सेवा की एक निदेशक वैनेसा लॉयड ने औपचारिक तौर पर आरोप लगाया कि भारत जैसा शत्रु देश इन चुनावों में दखल देने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करेगा.

उन्होंने कहा कि भारत इसमें सक्षम है. वह ऐसा कर सकता है और उसका इरादा भी है. हालांकि लॉयड ने ऐसा ही आरोप रूस, चीन और पाकिस्तान पर भी लगाया है. पर हम जानते हैं कि हालिया दौर में भारत के साथ कनाडा के संबंधों में तीखी कड़वाहट आई है. रूस, चीन और पाकिस्तान के साथ फिलहाल उतनी गंभीर समस्या नहीं है.

वैनेसा लॉयड कहती हैं कि भारत सरकार अपना जमीनी राजनीतिक प्रभाव कायम करने के लिए कनाडा के स्थानीय समुदायों और लोकतांत्रिक ढांचे को प्रभावित करना चाहती है. यह उचित नहीं है. आपको याद होगा कि जनवरी में कनाडा के एक आयोग ने अपनी रिपोर्ट जारी की थी. इसमें भी यही बात कही गई थी. भारत ने इसका करारा उत्तर दिया था.

इसके बाद कनाडा के समाचार पत्र द ग्लोब एंड मेल ने लिखा था कि नई दिल्ली ने संघीय चुनाव में तीन राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को गुप्त वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए प्रॉक्सी एजेंटों का इस्तेमाल किया था. भारत को शत्रु देश कहने का कारण समझने के लिए कनाडा का पुराना घटनाक्रम जानना जरूरी है.

वहां की राजनीति में पिछले कुछ समय से बौद्धिक समझ और कूटनीतिक कौशल का अभाव देखने को मिल रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के जमाने में भारत विरोध की इस अपरिपक्व सियासत का आगाज हुआ था. जब उन्होंने दूसरी बार लिबरल पार्टी की सरकार बनाई तो बहुमत नहीं होने के कारण न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन लेना पड़ा था.

इसका मुखिया जगमीत सिंह है. यह पार्टी खालिस्तान समर्थक है. ट्रूडो शुरुआत में तो इस पार्टी के दबाव में खालिस्तान समर्थक रैलियों में भी जाया करते थे. बाद में उन्हें इसका खामियाजा उठाना पड़ा. खालिस्तान समर्थक पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया क्योंकि उसके नेताओं को लगने लगा कि अपने दम पर वे लिबरल और कंजर्वेटिव पार्टियों के समकक्ष खड़े हो सकते हैं.

इसलिए ट्रूडो को समय पूर्व इस्तीफा देना पड़ा. उनके बाद लिबरल पार्टी के मार्क कार्नी ने कामचलाऊ प्रधानमंत्री के रूप में काम संभाला. चुनाव तो सात महीने बाद कराए जाने थे. लेकिन गैरराजनीतिक मिजाज के कारण उनके लिए मुल्क के सामने खड़ी चुनौतियों से निपटना कठिन था. इसलिए उन्होंने जल्द चुनाव कराने का फैसला लिया.

कार्नी पेशे से बैंकर रहे हैं और आगामी चुनाव में पहली बार संसद सदस्य बनने के लिए चुनाव लड़ेंगे. वहां की सियासत में वे कभी मुख्यधारा में नहीं रहे, फिर भी भारत उनसे आशा कर रहा था कि वे दोनों देशों के रिश्तों को पटरी पर लाने का प्रयास करेंगे. पर ऐसा नहीं हुआ और वे भी वोट बैंक की राजनीति में उलझ गए.

लौटते हैं शत्रु देश वाले पेंच पर. चूंकि आने वाला चुनाव तीनों पार्टियां अपने दम पर लड़ेंगी और लिबरल पार्टी खुलकर भारत विरोधी छवि के साथ मतदाताओं के सामने प्रस्तुत होगी, अब वह भारत का समर्थन तो कर नहीं सकती. यदि वह ऐसा करती है तो भारत विरोधी मतदाता उससे छिटक जाएंगे और न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ चले जाएंगे.

दो बार से सरकार चला रही लिबरल पार्टी पहले ही अलोकप्रिय थी और नकारात्मक वोटों की संख्या भी अच्छी खासी है. ऐसी स्थिति में कंजर्वेटिव पार्टी की बढ़त अभी से दिखाई दे रही है. कामचलाऊ प्रधानमंत्री मार्क कार्नी की यही दुविधा है. उन्हें प्रचार में न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी की तुलना में अधिक भारत विरोधी दिखना पड़ेगा. अब वे भारत समर्थक भी नहीं हो सकते.

इस तरह लिबरल पार्टी की स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गई है. कंजर्वेटिव पार्टी ने भारतीय मूल के खालिस्तान विरोधी मतदाताओं की सहानुभूति हासिल कर ली है. यह लिबरल पार्टी के लिए गंभीर चिंता की बात है. भारत विरोध पर तो दोनों पार्टियों का नजरिया स्पष्ट है. लेकिन एक महत्वपूर्ण बिंदु पर आकर उनका संकट समान है.

आपको याद होगा कि डोनाल्ड ट्रम्प ने दूसरी पारी शुरू करते ही कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बताया था और जस्टिन ट्रूडो को कनाडा का गवर्नर. इससे कनाडा कुपित हो गया. अब यह प्रश्न कनाडा के राष्ट्रीय स्वाभिमान और अखंडता से जुड़ गया है. लिबरल और कंजर्वेटिव दोनों पार्टियों को इस मामले में एक मंच पर आना पड़ा.

मार्क कार्नी ने डोनाल्ड ट्रम्प को ललकारा. उन्होंने कहा कि कनाडा अब तक के सबसे गंभीर संकट का सामना कर रहा है. ट्रम्प कहते हैं कि कनाडा नाम का कोई देश ही नहीं है. ट्रम्प हमें तोड़ना चाहते हैं. हम ऐसा कभी नहीं होने देंगे. इसके बाद कंजर्वेटिव पार्टी के नेता पियरे पोलीवरे ने कहा कि कनाडा के लोग बेहद गुस्से में हैं.

डोनाल्ड ट्रम्प को चाहिए कि कनाडा की संप्रभुता का सम्मान करें. अब दोनों पार्टियों को समझना होगा कि उनके देश के चुनाव में अमेरिका से ज्यादा दखल कौन दे सकता है? रूस, चीन, पाकिस्तान और भारत तो एक बार कनाडा में चुनाव से आंख मूंद भी लें, मगर अमेरिका नहीं मूंद सकता. लब्बोलुआब यह कि लिबरल पार्टी अब तक की सबसे कमजोर स्थिति में है.

आने वाले चुनाव तक हम उसकी सरकार को भारत के खिलाफ और जहर उगलते देखेंगे. क्या भारत को इसके बाद भी तटस्थ रहना चाहिए? जहर को बेअसर करने के लिए जहर की जरूरत ही होती है. चुनाव पार्टी लड़ती है और नीति देश की होती है. जब देश ने घोषित रूप से हिंदुस्तान को दुश्मन बता दिया तो अब उससे दोस्त जैसा बर्ताव डेढ़ सौ करोड़ निवासियों वाला देश कैसे कर सकता है?

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