ब्लॉग: पूंजीवाद के दौर में कार्ल मार्क्स...दुनिया भले याद करना जरूरी न समझे पर भुलाना भी संभव नहीं

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: May 5, 2023 02:25 PM2023-05-05T14:25:00+5:302023-05-05T14:31:29+5:30

कार्ल मार्क्स का जन्म आज के ही दिन जर्मनी में हुआ था. पूंजीवाद से जीवन भर लड़ने वाले मार्क्स को आज पूंजीवाद के दौर में भी भुलाना संभव नहीं है.

Blog: Karl Marx in the era of capitalism, world may not consider necessary to remember him but not possible to forget either | ब्लॉग: पूंजीवाद के दौर में कार्ल मार्क्स...दुनिया भले याद करना जरूरी न समझे पर भुलाना भी संभव नहीं

पूंजीवाद के दौर में कार्ल मार्क्स की याद

पूंजीवाद की जय और साम्यवाद की पराजय के उद्घोष के इस दौर में वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और पत्रकार कार्ल मार्क्स (1818 में जिनका जर्मनी में आज के ही दिन जन्म हुआ) की यादें एक बड़ी विडंबना की शिकार हैं. यह कि आम तौर पर उन्हें याद करना जरूरी नहीं समझा जाता, लेकिन भुलाना भी संभव नहीं हो पाता.

इसलिए कार्ल मार्क्स हैं कि बरबस याद आते रहते हैं-प्रायः सताने की तर्ज पर. उन्हें भी जो उनके अनुयायी होने का दावा करते हैं और उन्हें भी जो उनसे परहेज बरतना चाहते और परहेज से ज्यादा ‘दुश्मनी’ पर आमादा रहते हैं.

दूसरे शब्दों में कहें तो कार्ल मार्क्स के अनुयायियों की परेशानी यह है कि वे उन्हें ‘स्थापित’ नहीं कर पाए हैं तो ‘दुश्मनी’ पर आमादा रहने वालों की यह कि उन्होंने भले ही उनके विचारों का दुर्दिन से सामना करा दिया है, उनको पूरी तरह खारिज या ‘विस्थापित’ नहीं कर पा रहे. 

इसे यों समझ सकते हैं कि जिस पूंजीवाद से मार्क्स अपनी आखिरी सांस तक दो-दो हाथ करते रहे, उसके सब कुछ अपनी मुट्ठी में केंद्रित कर लेने के बावजूद उसके पैरोकार न मार्क्स द्वारा वर्णित पूंजी के मनुष्यमात्र को हृदयहीन बनाने के पुराने इतिहास को नकार पा रहे हैं, न ही 1844 में दी गई इस चेतावनी को कि ‘पूंजी जैसी निर्जीव वस्तु सजीवों-खासकर मनुष्यों-को संचालित करेगी तो उन्हें हृदयहीन बना देगी.’ 

उलटे कई बार अपने कमजोर क्षणों में उन्हें लगता है कि मार्क्स को उनके अनुयायियों से ज्यादा वही ‘सही’ सिद्ध किए दे रहे हैं. क्योंकि उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए पूंजी को मनुष्यमात्र के प्रति सहृदय बनाने की लाजिमी शर्त है कि उनसे पूरी नहीं हो रही.  

प्रसंगवश, 1837 में मार्क्स ने अपने पिता को एक पत्र में लिखा था, ‘संसार में सबसे ज्यादा खुशी उसी को मिलती है, जो सबसे ज्यादा लोगों की खुशी के लिए काम करता है.’ वे मानते थे कि ‘पूंजीवादी समाज में पूंजी स्वतंत्र और व्यक्तिगत होती है जबकि जीवित व्यक्ति उसके आश्रित  होता है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती.’ 

उन्होंने तभी समझ लिया था कि अंधाधुंध उपभोग हमें खुशी के पास नहीं ले जाता, उससे और दूर करता है. इसलिए उनका विचार था, ‘जरूरत तब तक अंधी होती है, जब तक उसे होश न आ जाए. आजादी जरूरत की चेतना होती है.’

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