उसूलों के लिए बलिदान देने वाले श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी, नरेंद्र कौर छाबड़ा का ब्लॉग
By नरेंद्र कौर छाबड़ा | Published: December 19, 2020 12:17 PM2020-12-19T12:17:11+5:302020-12-19T12:18:26+5:30
शांत रस तथा वैराग्य से भरपूर काव्य के रचयिता श्री गुरु तेग बहादुर जी का जन्म पिता श्री गुरु हरगोबिंद जी तथा माता नानकी जी के गृह सन् 1621 में हुआ.
संसार की नश्वरता, माया की क्षुद्रता, सांसारिक बंधनों की असारता और जीवन की क्षणभंगुरता श्री गुरु तेग बहादुर जी की वाणी के प्रमुख विषय हैं. शांत रस तथा वैराग्य से भरपूर काव्य के रचयिता श्री गुरु तेग बहादुर जी का जन्म पिता श्री गुरु हरगोबिंद जी तथा माता नानकी जी के गृह सन् 1621 में हुआ.
बाल्यकाल से ही वे गंभीर, दिलेर तथा निर्भीक स्वभाव के मालिक थे. उन्हें धार्मिक व आध्यात्मिक रुचि बहुत अधिक थी. उनकी शिक्षा अपने पिता की निगरानी में हुई. धर्म ग्रंथों की पढ़ाई के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्न-शस्त्न चलाने की विद्या भी दी गई.
करतारपुर जंग में 13 वर्ष की उम्र में पिता के साथ तेग बहादुर जी ने तलवार के जौहर दिखाकर पिता द्वारा दिए नाम तेग (तलवार) को तेग का धनी सिद्ध किया. उनका विवाह माता गुजरी जी के साथ हुआ जिससे उनके घर एकमात्न पुत्न गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ.
गुरु तेग बहादुर जी का जीवन बड़ा ही सीधा-सादा था. अपनी ख्वाहिशों, रुचियों, वृत्तियों को उन्होंने पूर्ण रूप से अपने वश में कर लिया था. इसी मनोवृत्ति के कारण जब उनके पिता ने परलोक गमन के समय गुरु गद्दी उन्हें छोड़कर अपने भतीजे श्री हर राय जी को सौंपी तो उनके मन में तनिक भी ईष्या, क्रोध नहीं आया. सांसारिक सुखों के प्रति कोई लगाव न होने के कारण गुरु जी की काव्य रचनाओं में अधिकतर वैराग्य व शांत रस का समावेश है. गुरु ग्रंथ साहिब में गुरु तेग बहादुर जी की रचनाओं का समावेश है.
सन् 1644 में पिता के निधन के पश्चात गुरु जी पत्नी व माताजी सहित अपने ननिहाल अमृतसर के जिला बकाला में आ गए और 20 वर्ष तक वहीं रहे. उनका अधिकांश समय जप-तप, सिमरन, अभ्यास में ही बीतता था. 44 वर्ष की उम्र में गुरु तेग बहादुर जी को गुरु गद्दी प्राप्त हुई और वे नौवें गुरु बने.
धर्म के प्रचार-प्रसार तथा मानव कल्याण के लिए उन्होंने अनेक यात्नाएं कीं तथा काफी सारे कार्य किए. जहां पानी का अभाव था वहां पर कुएं खुदवाए, सरोवर बनवाए. कीरतपुर से 5 मील दूर नैना देवी पहाड़ी के समीप जमीन खरीद कर उन्होंने आनंदपुर शहर बसाया. अपनी यात्नाओं के दौरान वे मालवा क्षेत्न, ढाका, असम, बंगाल आदि प्रांतों में भी गए. वे जहां भी जाते, लोगों को मिलजुलकर प्रेम से रहने की, बुरी आदतें छोड़ने की शिक्षाएं देते थे.
उन दिनों मुगल बादशाह औरंगजेब का साम्राज्य था. जब अत्याचार अधिक बढ़ गए तो पंडित कृपा राम की अगुवाई में कुछ कश्मीरी पंडित गुरु जी के पास पहुंचे तथा अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की. उस समय गुरु जी के 9 वर्षीय बालक गोविंद राय (गोविंद सिंह जी) आए. गुरु जी पंडितों की बात सुनकर सोच में पड़े थे तभी गोविंद राय जी ने पूछा आप इतने परेशान क्यों हैं ?
गुरु जी ने कहा देश में धर्म के नाम पर जुल्म अत्याचार किए जा रहे हैं. जनता को जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने के लिए तैयार करने की आवश्यकता है. इस कार्य के लिए किसी महान आत्मा को कुर्बानी देनी होगी. हम वही सोच रहे हैं, वह महान आत्मा कौन हो सकती है. गोविंद राय जी तुरंत बोले भला आपसे महान आत्मा और कौन हो सकती है?
गुरु तेग बहादुर जी ने तुरंत निश्चय कर लिया कि वे कश्मीरी पंडितों के मानवाधिकार हेतु औरंगजेब की कट्टरता का विरोध करेंगे. वे उससे मिलने दिल्ली पहुंचे. औरंगजेब ने उनके सम्मुख तीन र्शते रखीं- या तो वे इस्लाम कबूल करें या कोई करामात करके दिखाएं या फिर शहादत के लिए तैयार रहें. गुरु जी ने उनकी दोनों पहली शर्तो को मानने से इनकार कर दिया.
उन्होंने कहा संसार में किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि जबरदस्ती किसी को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया जाए, यह पाप है. औरंगजेब ने गुरु जी को डराने के लिए उनके शिष्य भाई मती दास जी तथा भाई दयाला जी का बड़ी निर्दयता से कत्ल करवाया.
गुरु जी फिर भी अडोल रहे तो उसने जल्लाद को आज्ञा दी गुरु जी का शीश धड़ से अलग कर दिया जाए. हजारों लोगों के सामने गुरु जी को शहीद कर दिया गया. अपनी सच्चाई, उसूलों और विश्वास के लिए आत्मबलिदान करना बड़ी बात होती है परंतु दूसरे के विश्वास उसूलों के लिए कुर्बान हो जाना उससे भी बड़ी बात होती है. गुरु तेग बहादुर जी इसी प्रकार के बलिदानी थे. उन्होंने कश्मीरी पंडितों के अधिकार तथा विश्वास की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया, तभी तो आज सब श्रद्धा से उन्हें हिंद की चादर कहते हैं.