गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: संत कबीरदास का गुरु-स्मरण
By गिरीश्वर मिश्र | Published: July 23, 2021 01:26 PM2021-07-23T13:26:39+5:302021-07-23T13:52:43+5:30
गुरु से प्राप्त दृष्टि शिष्य को अज्ञात रहस्यों के साक्षात्कार की सामर्थ्य प्रदान करती है और शिष्य के बोध की सीमा को विस्तृत करती है। इस प्रकार जो अलक्षित या अप्रकट होने से अनुपलब्ध और अग्राह्य बना रहता है, गुरु की सहायता से वह प्रत्यक्ष हो जाता है।
निर्गुण संत परंपरा के काव्य में गुरु की महिमा पर विशेष ध्यान दिया गया है और शिष्य या साधक के उन्नयन में उसकी भूमिका को बड़े आदर से देखा गया है। गुरु को ‘सद्गुरु ’ भी कहा गया है और सद्गुरु को ईश्वर या परमात्मा के रूप में भी व्यक्त किया गया है। सामान्यतः संतों द्वारा गुरु को प्रकाश के स्नेत के रूप में लिया गया है जो अंधकार से आवृत्त शिष्य को सामर्थ्य देता है और उसे मिथ्या और भ्रम से निजात दिलाता है। गुरु वह दृष्टि देता है जिससे यथार्थ दृष्टिगत हो पाता है। गुरु की कृपा से शिष्य यथार्थ ज्ञान और बोध के स्तर पर संचरित होता है और दृष्टि बदलने से दृश्य और उसका अभिप्राय भी बदल जाता है। निर्गुण परमात्मा की ओर अभिमुख दृष्टि के आलोक में व्यक्ति का अनुभव, कर्म और दुनिया से संबंध नया आकार ग्रहण करता है। यद्यपि भारत में गुरु, आचार्य, उपाध्याय आदि पर विचार की प्राचीन परंपरा रही है और गुरु एक संस्था के रूप में स्थापित है, संत काव्य ने गुरु की एक नई और सहज दृष्टि का विकास किया। यहां पर गुरु के विषय में संत काव्य के कुछ चुने संदर्भो के आधार पर संक्षिप्त विवेचन किया गया है जो इस दृष्टि से विस्तृत विचार की आवश्यकता की ओर संकेत करता है।
संत कबीरदास सद्गुरु गुरु की महिमा बताते नहीं अघाते। सद्गुरु ने ज्ञान के चक्षु को उन्मीलित किया। तभी परम तत्व की अनंत महिमा का पता चल सका। वे कहते हैं कि सद्गुरु की अनुपस्थिति में लोक और वेद के पीछे आंख मूंद कर दौड़ लगा रहा था। भाग्य ने साथ दिया और मुझे सद्गुरु की प्राप्ति हुई। उसने ज्ञान का दीपक दिया और अब मुझे किसी के आंख मूंद कर अनुकरण की जरूरत नहीं रही। जब गहरा और गंभीर ज्ञानी मिलता है तो ही आत्म-ज्ञान भी मिल पाता है और तब साधक, गुरु, परम तत्व का ज्ञान सब कुछ एकाकार हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे आटे में नमक मिल जाता है। तब सारे सामाजिक भेद और नाम रूप सभी मिट गए। दूसरी ओर अगर गुरु अंधा या अज्ञानी मिला तो गुरु शिष्य दोनों एक दूसरे को धक्का देते कुएं में जा गिरे। लोभ ने दोनों का साथ नहीं छोड़ा। फल यह हुआ कि दोनों पत्थर की नाव पर सवार होकर बीच धार में ही डूब गए. लोभ की नाव से भव सागर से पार जाना संभव नहीं है। कबीर दास सारे संसार में गुरु को सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहते हैं, उससे अच्छा या बड़ा कोई नहीं। गुरु वह सब संभव कर देता है जो कर्ता या जनक भी नहीं कर सकता। गुरु की भक्ति से पापों का समूल विनाश हो जाता है और वे जड़ से समाप्त हो जाते हैं : सात खंड नव द्वीप में, गुरु से बड़ा न कोय, कर्ता करे न करि सके, गुरु करे सो होय। गुरु जीव को नाना प्रकार के बंधनों से मुक्त करता है और मृत्यु का भी भय समाप्त करता है।
गुरु से प्राप्त दृष्टि शिष्य को अज्ञात रहस्यों के साक्षात्कार की सामर्थ्य प्रदान करती है और शिष्य के बोध की सीमा को विस्तृत करती है। इस प्रकार जो अलक्षित या अप्रकट होने से अनुपलब्ध और अग्राह्य बना रहता है, गुरु की सहायता से वह प्रत्यक्ष हो जाता है। शिष्य ज्ञान के प्रकाश पुंज को स्वयं में अनुभव करता है। कबीर दास जी स्पष्ट रूप से गुरु की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं क्योंकि भक्ति का भेद या रहस्य स्वतः स्पष्ट नहीं हो सकता। वे घोषणा करते हैं कि गुरु ही यह संभव करता है अन्यथा मनुष्य सारे संसार में निरुद्देश्य इधर-उधर भ्रमण करता रहेगा और अंततः अज्ञान की स्थिति में ही उसका जीवन समाप्त हो जाएगा : बिन गुरु भक्ति भेद नहिं पावै, भरमि मरै संसारा, कहैं कबीर सुनो भाई साधो, मानो कहा हमारा।
मनुष्य की अवस्था बड़ी विचित्र है। वे कहते हैं कि ‘जैसे जल में रहते हुए मछली प्यासी रहती है वैसी ही स्थिति उसकी भी रहती है और यह देख मुझे हंसी आती है।’ आत्म ज्ञान के अभाव में लोग दर-दर इधर-उधर भटकते रहते हैं, तीर्थ स्थानों में जाते हैं, जैसे मृग की नाभि में ही कस्तूरी रहती है और वह विकल हो कर वन-वन उसे ढूंढ़ता रहता है। सरोवर में जल के मध्य कमल होता है, कमल के बीच कलियां होती हैं और उस पर भौंरा रहता है। सामान्य जन और संन्यासी तरह-तरह का ध्यान करते हैं परंतु परम पुरुष जो अविनाशी (अनादि और अनंत) है वह जीव में ही उपस्थित रहता है और उस तक सदैव पहुंचा जा सकता है पर उसे दूर बताया जाता है। कबीर कहते हैं कि इस प्रकार का भ्रम गुरु ही दूर कर सकता है : कहैं कबीर सुनो भाई साधो, गुरु बिन भरम न जासी।
सचमुच सद्गुरु की अनुपस्थिति में आदमी इधर-उधर भटकता ही रहता है। उसे दर-दर खोजता फिरता रहता है और उसे कहीं भी ठौर नहीं मिलता है : बिन सतगुरु नर फिरत भुलाना, खोजत फिरत न मिलत ठिकाना। गुरु के प्रताप से जब आत्म-स्वरूप का ज्ञान होता है तो जो आनंद मिलता है वह शब्दों में अवर्णनीय है। दुनिया तो सिर्फ मांगने वाली है पर गुरु की तरह कोई देने वाला दूसरा नहीं है। इस गुरु की जब कृपा हुई तो मेरे जैसे अज्ञानी को सब कुछ विदित हो गया। गुरु की अनुकंपा से सहज समाधि की स्थिति पैदा होती है और दिन प्रतिदिन बढ़ती जाती है : साधो सहज समाधि भली, गुरु प्रताप जा दिन तें उपजी दिन-दिन अधिक चली।