ब्लॉगः सीय राममय सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी
By गिरीश्वर मिश्र | Published: March 30, 2023 04:02 PM2023-03-30T16:02:19+5:302023-03-30T16:02:50+5:30
एक भक्त के रूप में तुलसीदासजी का विश्वास है कि सारा जगत राममय है और उनके मन में बसा भक्त कह उठता है- सीय राममय सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।
श्रीराम विष्णु के अवतार हैं। सृष्टि के कथानक में भगवान विष्णु के अवतार लेने के कारणों में भक्तों के मन में आए विकारों को दूर करना, लोक में भक्ति का संचार करना, जन-जन के कष्टों का निवारण और भक्तों के लिए भगवान की प्रीति पा सकने की इच्छा पूरा करना प्रमुख है। सांसारिक जीवन में मद, काम, क्रोध और मोह आदि से अनेक तरह के कष्ट होते हैं और उदात्त वृत्तियों के विकास में व्यवधान पड़ता है।
रामचरितमानस में इन स्थितियों का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, नीच और अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं और अन्याय करने लगते हैं पृथ्वी और वहां के निवासी कष्ट पाते हैं, तब-तब कृपानिधान प्रभु भांति-भांति के दिव्य शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं। एक भक्त के रूप में तुलसीदासजी का विश्वास है कि सारा जगत राममय है और उनके मन में बसा भक्त कह उठता है- सीय राममय सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।
एक और अनेक के बीच के रिश्ते प्राचीन काल से मनुष्य की सोच के केंद्र में रहे हैं। पुरा-काल के सृष्टि के आख्यानों में एक यह भी है कि ईश्वर या परमात्मा को अकेले अच्छा नहीं लग रहा था (स एकाकी न रमते) और तब उसने एक से अनेक होने की इच्छा की (एकोहं बहुस्याम: ) और फिर जो भी दूसरा रचा गया उसमें वह स्वयं प्रवेश कर गया। इस आख्यान का एक आशय परमात्मा की उपस्थिति की व्याप्ति को दर्शाना है। ईशावास्योपनिषद भी यही कहता है –ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित् जगत्यां जगत्- अर्थात् यह दुनिया ईश्वर की वासस्थली है इसलिए यहां हर जगह ईश्वर की उपस्थिति है। सर्वव्यापी ब्रह्म, ईश्वर या परमात्मा की संकल्पना जीवन जीने के लिए एक सुदृढ़ आधार प्रदान करती है। गोस्वामी तुलसीदासजी भी जगत को सीय-राममय कह कर भी संभवत: यही भाव व्यक्त कर रहे हैं।
सब में किसी एक तत्व की उपस्थिति सब की अनुकूलता को द्योतित करती है जिससे सबके हित की संभावना बनती है। ऐसे में सभी एक-दूसरे का भला करना चाहेंगे क्योंकि तब दूसरा पराया नहीं रह जाएगा। ऐसे ही उदार व्यक्ति के लिए कहा गया कि ‘निज’ और ‘पर’ का भेद मिट जाता है। वह अपने में सबको और सबमें अपने को देखता है। इस नए समीकरण में परस्पर भरोसा मुख्य हो जाता है। तब प्रतिरोध कम होता जाता है और परस्पर समर्थन बढ़ता है। सबको अपने जैसा मानने के कई परिणाम होते हैं। अपने अस्तित्व-बोध का विस्तार कर जो अपने लिए ठीक या प्रिय नहीं लगता उसे दूसरों के साथ करने से बचते हैं। तभी सर्वे भवंतु सुखिन: की कामना फलवती होगी और राम-राज्य का संकल्प पूरा हो सकेगा।