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Holi 2025: आत्म-परिष्कार का आमंत्रण है होली?, फाल्गुन की मदमाती बयार

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: March 14, 2025 05:14 IST

Holi 2025:प्रकृति नटी नया परिधान धारण करती है. खेतों और बाग-बगीचों में रंगों से अद्भुत चित्रकारी चलती रहती है.

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ठळक मुद्देकोयल की मधुर कूक के बीच प्रकृति एक रमणीय सुंदर चित्र की तरह सज उठती है. वैयक्तिकता और निजता को समृद्ध और पुष्ट करने की दिशा में गतिशील हो रहे हैं.चलते अकेलेपन के साथ दूसरों के साथ टकराव भी अवश्यंभावी हो जाता है.

Holi 2025: शिशिर के बाद फाल्गुन और चैत्र के आने के साथ वसंत ऋतु की दस्तक होती है. वसंत में प्रकृति अपने सौंदर्य का सारा संचित खजाना लुटाने के लिए व्यग्र रहती है. उसके अपने दूत बने पक्षी गाकर, वृक्ष और पादप नए पुष्प और पल्लव के साथ सज-धज कर बड़ी मुस्तैदी से इस व्यग्रता का डंका बजाते चलते हैं. फाल्गुन की मदमाती बयार किसी के भी चित्त को उन्मथित किए बगैर नहीं छोड़ती. यह सब एक क्रम में काल-चक्र की निश्चित गति में आयोजित होता है. प्रकृति नटी नया परिधान धारण करती है. खेतों और बाग-बगीचों में रंगों से अद्भुत चित्रकारी चलती रहती है.

पीली सरसों, तीसी के नीले फूल, आम की मंजरी, कोयल की मधुर कूक के बीच प्रकृति एक रमणीय सुंदर चित्र की तरह सज उठती है. बिना किसी व्यतिक्रम के एक संगति में ये विविधता भरा बदलाव एक नया, अनोखा और उत्साहवर्धक परिदृश्य रच देता है. नया रमणीय होता है इसलिए मानव चित्त को बड़ा प्रिय लगता है. नए अनुभव के लिए मन में उत्सुकता और उल्लास भरा होता है.

अनजाने का आकर्षण अतिरिक्त उत्साह भरता है. वसंत में ऋतु-परिवर्तन का यह रूप सबको बदलने के लिए विवश करता है. इस आलोड़न के चलते लोग वह नहीं रह जाते जो होते हैं. चित्त के परिष्कार से व्यक्ति कुछ का कुछ बन जाता है. जुड़ने और आत्म-विस्तार से ही मनुष्य होने का अर्थ सिद्ध होता है क्योंकि एक अकेला व्यक्ति अधूरा ही रहेगा.

दूसरों के बीच और दूसरों से जुड़ कर ही हमें अस्तित्व की प्रतीति हो पाती है. पारस्परिकता में ही जीवन की अर्थवत्ता समाई रहती है. यह पारस्परिकता भारतीय समाज में उत्सवधर्मिता के रूप में अभिव्यक्त होती है जो ऊर्जावान बनाती है. मानव निर्मित संकुचित अस्मिताओं के चलते तनाव, अत्याचार हिंसा और युद्ध ही बढ़ता है.

उत्तरदायित्व की जगह लोभ और स्वार्थ के वशीभूत होकर अत्याचार और अनाचार जीवन को प्रदूषित कर रहे हैं. आज की विडंबना यही है कि हम अपने अस्तित्व को सबसे अलग-थलग हो कर सिर्फ वैयक्तिकता और निजता को समृद्ध और पुष्ट करने की दिशा में गतिशील हो रहे हैं.

इसके चलते अकेलेपन के साथ दूसरों के साथ टकराव भी अवश्यंभावी हो जाता है. बंधुत्व और उदारता के साथ सबको जीने का अवसर दे कर ही हम सच्चे अर्थों में मनुष्य हो सकेंगे. छोटी अस्मिताओं से ऊपर उठ कर देश, समाज और मनुष्यता के स्तर पर अपनी साझी अस्मिता की वास्तविकता महसूस करते हुए ही मानव कल्याण संभव है.  

टॅग्स :होलीमथुराभगवान कृष्ण
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