जवाहर सरकार
गुरु हालांकि प्राचीन हिंदू धर्म का अविभाज्य अंग रहे हैं, आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को गुरु के सम्मान में मानने के पीछे बौद्ध और जैन धर्मो का योगदान है. गुरु और उनके आश्रम बच्चों तथा ब्रह्मचर्य काल तक युवाओं को शिक्षा प्रदान करने में निवासी विद्यालय की भूमिका निभाते थे. लेकिन गुरुपूर्णिमा मनाने की शुरुआत कब से हुई, इस बारे में मतैक्य नहीं है. कौरव, पांडवों को विशिष्ट कौशल में पारंगत करने वाले द्रोणाचार्य जैसे गुरुओं के बारे में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि वे किसी विशिष्ट तिथि से शिक्षा देने की शुरुआत करते थे. जबकि बाद के आध्यात्मिक गुरुओं के शैक्षिक सत्र के आरंभ और समाप्ति का उल्लेख मिलता है.
बौद्ध धर्म में गुरु पूर्णिमा का स्पष्ट रूप से उल्लेख है, जब तरुण और वयोवृद्ध भिक्षु मानव बस्तियां छोड़कर दूर गुफाओं और मठों में इकट्ठा होते थे. वहां सीखने में रुचि रखने वालों के लिए कई पाठय़क्रम उपलब्ध होते थे, जैसे कि धर्म शास्त्र और शास्त्रीय अनुशासन की शिक्षा. गुरुपूर्णिमा तक मानसून देश के लगभग सभी हिस्सों तक पहुंच जाता था. इस दिन छात्र अपने शिक्षकों से मिलते थे और सीमित अवधि के पाठय़क्रम शुरू होते थे.
समकालीन जैन धर्म में इससे चातुर्मास की शुरुआत होती थी और यह परंपरा आज तक चली आ रही है. माना जाता है कि र्तीथकर महावीर ने अपने पहले शिष्य गौतम स्वामी को आज ही के दिन दीक्षा दी थी. बौद्ध परंपरा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही भगवान बुद्ध ने अपने पांच पूर्व साथियों को सारनाथ में पहला धर्मोपदेश दिया था. यह घटना सारनाथ में हुई थी. हिंदुओं ने दोनों संगठित धर्मो की सवरेत्तम प्रथाओं को अपनाने में देरी नहीं की. बौद्ध और जैन धर्म में विद्वानों के बीच समय-समय पर धर्म चर्चा होती थी. पूर्व में अन्य धर्मो का स्वरूप असंगठित था. शंकराचार्य और अन्य आचार्यो ने उसे निश्चित स्वरूप दिया. हालांकि ऋग्वेद और उपनिषदों में गुरु का अत्यंत आदर पूर्वक उल्लेख किया गया है, लेकिन गुरुपूजा कब से शुरू हुई, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है. व्यास मुनि का आगमन भी बहुत बाद की बात है जिन्होंने गुरु को समर्पित गुरु गीता की रचना की. गुरु पूर्णिमा का महत्व बताने वाली अन्य लिखित सामग्री भी बाद की है, जैसे कि वराह पुराण.
श्रवण, भाद्रपद, अश्विन और कार्तिक के चार महीनों में से स्थानीय आवश्यकताओं और बारिश के स्थानीय चरित्र के हिसाब से तीन महीने के पाठय़क्रम के लिए समय निकाला जाता था. गुरु की आर्थिक आवश्यकताओं के मद्देनजर दान-दक्षिणा की अनिवार्य प्रथा उपयोगी थी. भक्ति आंदोलन, जो चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत में अपने शिखर पर था, का नेतृत्व गुरुओं ने किया था, जिन्होंने हिंदू धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए काफी काम किया. इसने भी गुरु पूर्णिमा उत्सव को व्यापक बनाने में काफी मदद की.