महाराष्ट्र में दशहरे पर कई आयोजन होते आए हैं, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मुंबई में शिवसेना की रैली सबसे पुरानी मानी जाती है।
आरएसएस का आयोजन इसलिए होता है, क्योंकि उसकी स्थापना वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन ही हुई थी और शिवसेना की रैली की शुरुआत पार्टी के संस्थापक बाल ठाकरे ने दशहरे के दिन 30 अक्तूबर 1966 को थी। दोनों ही आयोजन अपने-अपने समर्थकों को एक संदेश देने की कोशिश के तहत किए जाते हैं।
हालांकि साल-दर-साल उनमें विचार कम, शक्ति प्रदर्शन अधिक होता जा रहा है. खास तौर पर जब शिवसेना गुटों में विभाजित हो चुकी है. ऐसे में कौन, किसे, कितना नीचा दिखा सकेगा, इस बात पर सबकी नजर रहती है।
बीत कई सालों तक होने वाले दो आयोजनों के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे ने भी अपने गृह जिले बीड़ के भगवान गढ़ में दशहरा रैली के आयोजन की शुरुआत की, जिसे उनकी बेटी पंकजा मुंडे बड़ी शिद्दत के साथ आगे बढ़ा रही हैं। इसके अलावा पिछले साल दो भागों में विभाजित होने के बाद शिवसेना के शिंदे गुट ने अपनी अलग रैली आरंभ कर दी। इस साल भी टूट जाने के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के शरद पवार गुट ने विधायक रोहित पवार के नेतृत्व में पुणे में सभा कर डाली।
इसके साथ ही एक सभा अहमदनगर जिले के चौंडी में भी हुई, जो अहिल्याबाई होल्कर की जन्मस्थली है। वहां धनगर समाज ने आरक्षण के लिए यशवंत सेना के नेतृत्व में आयोजन किया. दशहरे के अवसर पर राज्य में कुल छह रैलियों के आयोजन हुए। सभी में अपनी-अपनी तरह से संदेश देने के प्रयास किए गए। यदि धनगर समाज की रैली को अलग रखा जाए तो बाकी सभी का सुर राजनीतिक था, जिनमें से चार का अंदाज पुराना ही था।
आरएसएस मुख्यालय नागपुर में हर साल विजयादशमी पर एक मार्च पास्ट निकालने के बाद संबोधन होता है। इस बार आगामी चुनाव के साथ देश के राजनीतिक और धार्मिक माहौल को देखते हुए संघ प्रमुख मोहन भागवत के विचार जानने की सभी को उत्सुकता थी, जिस पर मणिपुर से लेकर सांस्कृतिक मार्क्सवाद पर विचार सामने आए।
राम मंदिर और डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के विचारों की बात की गई। दूसरी तरफ शिवसेना में फूट के बाद उद्धव ठाकरे ने मुंबई के उपनगर दादर के शिवाजी पार्क में अपनी संगठनात्मक ताकत दिखाने की कोशिश कर चुनाव के लिए सत्ताधारियों को ललकारा. उधर, आजाद मैदान पर शिवसेना का शिंदे गुट मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के साथ मजबूती से खड़ा नजर आया। उसने खुलेआम एकजुटता का दावा कर उद्धव ठाकरे पर सीधा हमला बोला।
भाजपा की राष्ट्रीय महासचिव पंकजा मुंडे ने भगवान गढ़ में दशहरा रैली कर भावनात्मक अपील कर प्रत्यक्ष तौर पर नेताओं को चुनौती दी। पार्टी में अपनी उपेक्षा से दु:खी भाजपा नेता ने राजनीति में पूंजीवाद और चरित्रहीनता को निशाने पर लिया। इन चारों के अलावा दो आयोजन विशेष उद्देश्य अनुसार किए गए जिसमें पोते रोहित पवार की रैली में राकांपा मुखिया शरद पवार युवाओं के पक्ष में बोले तो धनगर समाज अपने आरक्षण के लिए प्रतिज्ञाबद्ध नजर आया।
इतिहास गवाह है कि शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने हमेशा ही अपनी दशहरा रैलियों में पार्टी को स्पष्ट संदेश देने का प्रयास किया। वर्ष 1996 में शिवसेना में शिव उद्योग सेना की शुरुआत की थी। इसके अलावा दशहरा रैली से ही ‘भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के विरोध’ की घोषणा की थी।
वर्ष 2010 में उन्होंने अपने पोते और विधायक आदित्य ठाकरे को तलवार देकर सक्रिय राजनीति में प्रवेश करा दिया था लेकिन उद्धव ठाकरे के जिम्मेदारी संभालने के बाद कोई बड़ी बात सुनने में नहीं आई। वह केवल विरासत का गीत ही सुनाते आए. इसीलिए जब से एकनाथ शिंदे उनसे अलग हुए तो वह भी शिवसेना के गीत को नए अंदाज में गाते नजर आते हैं।
दोनों खुद के बाल ठाकरे की विचारधारा पर चलने का दावा करते हैं. दोनों में अंतर सिर्फ इतना है कि बाल ठाकरे सत्ता से दूर रहकर सत्ताधारियों की बात करते थे, किंतु शिवसेना के दोनों नए गुट सत्ता के इर्द-गिर्द ही अपने दावे करते हैं।
सभी आयोजनों को लेकर सवाल यह उठता है कि वर्तमान दौर में उनकी प्रासंगिकता कितनी है? पहले मैदान पाने का संघर्ष और उसके बाद भीड़ जुटाने की जद्दोजहद यह कहीं नहीं साबित करती है कि सबकुछ स्वाभाविक या स्वेच्छा से होने जा रहा है. इन आयोजन के पीछे एक बड़ा प्रबंधन काम करता है, जो काफी दिनों की तैयारी के बाद कोई ठोस मंच तैयार करता है. जिससे एक उम्मीद लगाई जाती है. किंतु आने वाले और जाने वाले एक कार्यक्रम में शामिल होकर कोई विचार लेकर आते या जाते नहीं दिखाई देते हैं। कुछ हद तक मुंबई में होने वाले आयोजनों में कई लोगों का मुंबई में आना-जाना और मौज-मस्ती हो जाती है।
दूसरी ओर संख्या बल के आधार पर नेताओं का शक्ति प्रदर्शन हो जाता है। नागपुर में यह चूंकि विशिष्ट विचारधारा के अपने समूह के लिए होता है, इसलिए उसका उद्देश्य और आयोजन कुछ तक निजी स्तर पर ही सीमित हो जाता है। मगर सभी आयोजन से संदेश व्यापक जनसमुदाय के लिए होते हैं। राज्य की राजनीति के निर्धारण के लिए होते हैं। किंतु क्या चुनाव परिणामों पर उनका असर होता है तो शायद इस बात का उत्तर नहीं ही है।
यदि इन आयोजनों का प्रभाव सीधे जनमानस पर पड़ता तो इनकी उपस्थिति के हिसाब से विधानसभा में इनसे संबंधित दलों के विधायकों की संख्या अच्छी खासी होनी चाहिए थी। मगर सालों-साल के आयोजनों के बाद भी शिवसेना विधानसभा में 73 से अधिक विधायक नहीं भेज पाई। वहीं आरएसएस से जुड़ी भाजपा का विधानसभा में सबसे बेहतर आंकड़ा 122 से अधिक नहीं हो पाया।
इन दोनों आंकड़ों को दोबारा भी पाना इन दलों के लिए मुश्किल ही रहा इससे यह साफ है कि इन आयोजनों से दल और उनके नेताओं को एक आत्मसंतुष्टि तो मिलती है, किंतु उनके भाषणों से जनता को कोई संतुष्टि नहीं मिलती है। एक-दूसरे पर की छींटाकशी या कीचड़ उछालने से कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हो जाते हैं, मगर विचारधारा के आधार पर जनता के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
इसके गवाह हर बार के चुनाव के परिणाम हैं। अगले एक साल में महाराष्ट्र में भी अनेक स्तर के चुनाव होंगे। इन आयोजनों का संदेश कितने परिणामों को बदल पाएगा, इसका दावा तो कोई नहीं कर सकता है। सिर्फ दिल बहलाने के लिए कुछ दिन का ख्याल अच्छा कहा जा सकता है।