Basant Ritu: वसंत ऋतु ने दस्तक दे दी है. श्रीकृष्ण के साथ इस ऋतु का गहरा संबंध माना जाता है. श्रीकृष्ण भाव पुरुष हैं, परब्रह्म के पूर्ण प्रतीक, जो लीला रूप में अनुभव की पकड़ में आते हैं. अक्षय स्नेह के स्रोत, रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण इंद्रियों के विश्व में आनंद के निर्झर सरीखे हैं. उनका सान्निध्य चैतन्य की सरसता के साथ सारे जगत को आप्लावित और प्रफुल्लित करता है. श्रीमद्भगवद्गीता में विभूति योग की व्याख्या करते हुए श्रीकृष्ण खुद को ऋतुओं में वसंत घोषित करते हैं : ऋतूनाम् कुसुमाकर: (गीता,10,35). वसंत ऋतु समग्रता और पूर्णता का प्रतीक होती है जिसमें विकासमान प्रकृति कुसुमित, प्रफुल्लित, प्रमुदित रूप में सजती-संवरती है. महाकवि कालिदास के शब्दों में, इस ऋतु में सबकुछ प्रिय हो उठता है : सर्वम् प्रिये चारुतर वसंते (ऋतु संहार, 6,2 ).
श्रीकृष्ण के रूप में सभी गुण नया सौंदर्य पा जाते हैं और उनका प्रकटन वसंत में होता है. इस दृष्टि से महाकवि जयदेव के श्रुतिमधुर काव्य गीत गोविंद की चर्चा के बिना कोई भी चर्चा अधूरी ही रहेगी. इस काव्य के ‘सामोददामोदर’ नामक पहले सर्ग में वसंत ऋतु में श्रीकृष्ण का वर्णन किया गया है. वासंती रस वृष्टि की इस रचना ने भारत के मन को मोह लिया है.
संगीत और नृत्य में अनेक कलाकारों ने इसकी अभिव्यक्ति की है. मूर्त या मानवीकृत वसंत कामदेव का परम सुहृद और सहचर है. वह सृष्टि के उद्भेद का संकल्प है. फागुन-चैत, यानी आधा फरवरी, पूरा मार्च और आधा अप्रैल वसंत ऋतु के महीने कहे जाते हैं. वसंत या फागुन-चैत के साथ भारतीय नया वर्ष भी शुरू होता है.
वसंत कुछ नया होने की और कुछ नया पाने की उत्कट उमंग है जो प्रकृति की गतिविधि में भी प्रत्यक्ष अनुभव की जाती है. भारत में इस मौसम में कोयल की कूक और पपीहे की ‘पी कहां’ की आवाज सुनाई पड़ने लगती है, तरु, पादप, लता, गुल्म सभी नए-नए पल्लवों से सुशोभित होने लगते हैं और हवा में भी सुवास घुलने लगती है. मन बहकने लगता है और उसका चरम वसंतोत्सव में अनुभव होता है. इस उत्सव में श्रीकृष्ण जनमानस के अभिन्न अंग बने हुए हैं.