Assembly Elections 2023: 3 दिसंबर को क्या होगा!, पायलट और वसुंधरा के भविष्य पर सवाल
By अभय कुमार दुबे | Updated: November 28, 2023 13:00 IST2023-11-28T12:58:18+5:302023-11-28T13:00:07+5:30
Assembly Elections 2023: हिंदी पट्टी की तीन विधानसभाओं के चुनावों ने हमारे सामने कुछ इस तरह के नेता पेश किए हैं जो अपनी ही पार्टी के नेतृत्व से उत्पीड़ित महसूस कर रहे हैं.

file photo
Assembly Elections 2023: भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में राज्यों के पैमाने पर नेताओं की कई श्रेणियां होती हैं. कुछ नेताओं को आलाकमान बड़ी तरजीह देता है, और वे पनपते चले जाते हैं. कुछ नेता शुरू में चढ़ाये जाते हैं, और फिर धीरे-धीरे विभिन्न कारणों से उन्हें हाशिये पर डाल दिया जाता है. इन्हें लगता है कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है.
कुछ नेताओं को काफी समय के बाद आलाकमान जोर डाल कर रिटायर कर देता है. कुछ को केंद्र में स्थापित कर दिया जाता है ताकि राज्य में उनकी जगह किसी दूसरे को बैठाया जा सके. हिंदी पट्टी की तीन विधानसभाओं के चुनावों ने हमारे सामने कुछ इस तरह के नेता पेश किए हैं जो अपनी ही पार्टी के नेतृत्व से उत्पीड़ित महसूस कर रहे हैं.
हालांकि इन नेताओं को अपने सताये जाने का एहसास है, लेकिन पार्टी छोड़ कर किसी और दल में जाने या कोई नई पार्टी बना लेने की स्थिति में वे नहीं हैं. उन्हें बार-बार अपनी वफादारी साबित करने वाले वक्तव्य देने पड़ते हैं. अपनी हताशा व्यक्त करने के लिए उन्हें इस तरह की भाषा और मौकों का इस्तेमाल करना पड़ता है जिसमें बगावती स्वर और इरादे न खोजे जा सकें.
राजस्थान में पाले के दोनों तरफ ऐसे नेता मौजूद हैं. कांग्रेस के सचिन पायलट और भाजपा की वसुंधराराजे सिंधिया को भी इसी दौर से गुजरना पड़ रहा है. 2018 के चुनाव से पहले और उसके बाद कुछ दिनों तक सचिन पायलट राजस्थान की ही नहीं, बल्कि कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति के तेजी से उभरते हुए सितारे थे.
लेकिन, मुख्यमंत्री पद अशोक गहलोत को मिला. पांच साल तक सचिन पार्टी के भीतर छापामार युद्ध चलाते रहे, एक ऐसा युद्ध जिसे वे चुनाव के दौरान नहीं चला सकते थे. पूरे चुनाव के दौरान उन्हें गहलोत से एकता का दिखावा करना पड़ा. विचारणीय प्रश्न यह है कि अपना हक मार लिये जाने के तीखे एहसास के बावजूद उन्होंने चुनाव में अपनी भूमिका को कैसे साधा होगा?
इसी से जुड़ा सवाल यह है कि राजस्थान के गूजर समुदाय (जिसका नेता पायलट को माना जाता है) की मतदान प्राथमिकताएं कैसे निर्धारित हुई होंगी? पिछली बार गूजर प्रधानता वाली सीटों पर भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया था, क्योंकि इस समुदाय को लगता था कि उनका नेता ही मुख्यमंत्री बनने वाला है.
इस बार भाजपा पायलट बनाम गहलोत का मसला उठा कर उम्मीद कर रही है कि वह काफी गूजर वोट खींच सकती है. अगर भाजपा अपने इरादे में सफल हो गई तो क्या गूजरों के इस युवा नेता के कांग्रेसी करियर को जबरदस्त धक्का नहीं लगेगा?
अगर पायलट की कांग्रेसी निष्ठाएं एक बार फिर ज्यादातर गूजर वोट अपनी पार्टी को दिलवाने में सफल हो गईं तो क्या वे गहलोत को चौथी बार मुख्यमंत्री बनवाने में योगदान करते नहीं पाये जाएंगे? सचिन की जीत एक ही तरीके से हो सकती है कि कांग्रेस जीते भी, और गहलोत मुख्यमंत्री भी नहीं बन पाएं.
लेकिन, इस पूरे चुनाव पर गहलोत की इतनी जबरदस्त छाप है कि कांग्रेस के जीतने पर उनकी ‘जादूगरी’ सचिन पायलट की पहुंच से बहुत परे चली जाएगी. वसुंधरा राजे अपनी तरफ से यह दिखाने की पूरी कोशिश करती रही हैं कि उनके और प्रधानमंत्री के बीच सब कुछ ठीकठाक है. मंच पर दोनों के बीच मुस्करा कर बात करने की तस्वीरें मुहिम के दौरान उनके ट्विटर हैंडल पर डाल दी गई थीं.
लेकिन, वसुंधरा को पता था कि अगर भाजपा राजस्थान में जीती तो उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा, बावजूद इसके कि वे पार्टी की सबसे कद्दावर नेता थीं और हैं. जाट, गूजर और राजपूत समाज से अपने जुड़ाव और स्त्री वोटरों में अपनी लोकप्रियता के बावजूद वे स्वयं को हाशिये पर पाती रही हैं. एक तरह से वे भाजपा की सचिन पायलट बनी हुई हैं जिन्हें पार्टी को जिताते हुए तो दिखना था.
लेकिन मुख्यमंत्री पद की अपेक्षा नहीं रखनी थी. सवाल यह है कि ऐसा करने के लिए उन्हें कौन सी तरकीब का इस्तेमाल करना पड़ा होगा? क्या उन्होंने सिर्फ अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को जिताने का ही प्रयास किया होगा? या, उन्हें यकीन रहा होगा कि अगर भाजपा जीती तो भले ही उन्हें मुख्यमंत्री पद न मिले, जीत में उनके योगदान को पार्टी द्वारा रेखांकित ही नहीं किया जाएगा.
वरन् उसके बदले उन्हें संतोषजनक ढंग से पुरस्कृत भी किया जाएगा? वसुंधरा की मुश्किल यह है कि श्रेय लेने के मामले में उनका मुकाबला किसी क्षेत्रीय नेता से नहीं है. राजस्थान की जीत का श्रेय केवल एक ही व्यक्ति को मिलने वाला है, और वे हैं नरेंद्र मोदी. इस लिहाज से देखें तो सचिन पायलट और वसुंधराराजे के लिए अपनी-अपनी पार्टियों में एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई है.
ठीक-ठीक ऐसी ही स्थिति म.प्र. में शिवराज सिंह चौहान की है. उनकी पार्टी हारी तो यह कहा जाएगा कि उनके खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी का नुकसान हुआ, और जीती तो किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बनते देख कर उनके हृदय पर सांप लोट जाएगा.
हां, इस मामले में छत्तीसगढ़ के टी.एस. सिंह देव ने कुछ फैसलाकुन वक्तव्य दिया है कि अगर कांग्रेस के जीतने पर वे मुख्यमंत्री नहीं बने तो चुनाव लड़ना छोड़ देंगे यानी राजनीति से बाहर हो जाएंगे. जाहिर है कि पायलट, चौहान और वसुंधरा इस तरह से सोचने के लिए तैयार नहीं हैं. शायद उन्हें अभी भी यह उम्मीद है कि अगले पांच साल में वे इस हारी हुई बाजी को अपने पक्ष में कर पाएंगे.