क्या सर्वे मीडिया अपनी साख की कीमत पर पीएम मोदी की इमेज बचा पाएगा?
By प्रदीप द्विवेदी | Published: January 22, 2021 09:10 PM2021-01-22T21:10:53+5:302021-01-22T21:12:53+5:30
इन सर्वे में सबसे बड़ी आपत्तिजनक बात यह है कि अब तक के प्रधान मंत्रियों की लोकप्रियता का सर्वे करके पीएम मोदी को सर्वश्रेष्ठ करार दिया गया है.
देश के मीडिया में एक बार फिर सर्वे का दौर शुरू हो गया है और जैसा कि सर्वे के नतीजों में साफ है, इनका उद्देश्य पीएम मोदी की इमेज को संवारना है, संभालना है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसा हो पाएगा? सबसे पहली बात तो यह है कि यह जरूरी नहीं की बहुमत हमेशा सत्य के साथ ही हो, लेकिन बहुमत कभी भी अल्पमत में बदल सकता है, जबकि सत्य हमेशा सत्य ही रहता है.
दरअसल, शुरूआत में ऐसे सर्वे का सियासी फायदा होता है, लेकिन बार-बार ऐसा होने पर फायदे के बजाए नुकसान होने लगता है.इस वक्त पीएम मोदी की जो ओवर ब्रांडिंग हो रही है, उसी से भविष्य में उनकी इमेज को धक्का लगेगा.वर्ष 2014 तक राहुल गांधी के खिलाफ चले अभियान ने उनकी पप्पू इमेज तो बना दी थी, किंतु वे लगातार संघर्ष करते रहे, जिसके नतीजे में आज उनकी बात का, उनके बयान का असर नजर आने लगा है.
कोरोना, बेरोज़गारी, कृषि कानून आदि को लेकर जो कुछ राहुल गांधी ने कहा, उसको लोग स्वीकार करने लगे हैं. अब जनता को भी लगता है कि राहुल गांधी वैसे नहीं हैं, जैसा उनके विरोधी अब तक प्रचारित करते रहे थे.आज पप्पू-पप्पू के स्वर कमजोर पड़ गए हैं, तो इसकी वजह यही है कि राहुल गांधी, पीएम मोदी का सियासी मुखौटा उतारने में कामयाब रहे हैं, उनका पाॅलिटिकल मेकअप धोने में सफल रहे हैं.
राहुल गांधी यह सियासी धारणा बनाने में सफल रहे हैं कि पीएम मोदी आमजनता के बजाए अपने कारोबारी मित्रों को लाभ दिलाने की नीति पर फोकस हैं.यही कारण भी है कि कुछ समय पहले तक पीएम मोदी के खिलाफ सही बात भी कहने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, वहीं आज कई मोर्चों पर उनके खिलाफ खुलकर बोला जाने लगा है. इतना ही नहीं, अब तो मोदी-मोदी के स्वर भी सुनाई नहीं देते हैं.
विरोधियों को तो छोड़िए, क्या बीजेपी से जुड़े विभिन्न संघ-संगठन भी पीएम मोदी की कृषि नीति, मजदूर नीति, स्वदेशी नीति आदि से पूर्णतः सहमत हैं? क्या मूल भाजपाई, सत्ता के लिए बीजेपी के कांग्रेसीकरण से खुश हैं? सियासी सच्चाई तो यह है कि अब देश में बीजेपी का नहीं, पीएम मोदी के सियासी साम्राज्य का विस्तार हो रहा है, हालांकि यह विस्तार भी अस्थाई इसलिए है कि सियासी जोड़तोड़ से जिन्हें आज बीजेपी में लाया जा रहा है, कल कोई और उन्हें बीजेपी से तोड़ कर वापस भी ले जा सकता है.
कांग्रेस के कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण यह रहा है कि इतने वर्षों में कांग्रेस में कार्यकर्ता कम हुए हैं और नेता बढ़ते गए हैं. लिहाजा, सभी नेताओं को पद देना, संतुष्ट करना कांग्रेस के लिए आसान नहीं है. धीरे-धीरे यही समस्या बीजेपी को भी कमजोर करेगी, जब यह सवाल गहराएगा कि पश्चिम बंगाल का मुख्यमंत्री, संघर्ष करने वाला मूल भाजपा नेता बने या दल बदल करके सत्ता के लिए बीजेपी में आने वाला नेता बने?
एमपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया इसलिए बीजेपी में आए कि कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के कारण उन्हें आगे आने का सियासी अवसर नहीं मिल रहा था, तो क्या बीजेपी में उन्हे ऐसा अवसर मिलता रहेगा. क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया एमपी के मुख्यमंत्री बन पाएंगे? और यदि ज्योतिरादित्य सिंधिया केन्द्र में मंत्री बन जाएंगे, तो उन्हें हराने वाले बीजेपी सांसद केपी यादव के समर्थक कब तक अपने नेता की उपेक्षा बर्दाश्त करेंगे?
इन सर्वे में सबसे बड़ी आपत्तिजनक बात यह है कि अब तक के प्रधान मंत्रियों की लोकप्रियता का सर्वे करके पीएम मोदी को सर्वश्रेष्ठ करार दिया गया है. कायदे से तो ऐसा सर्वे होना नहीं चाहिए, क्योंकि हमारे तमाम पूर्व प्रधान मंत्रियों का किसी-न-किसी क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है, इसलिए तुलना होनी नहीं चाहिए.इस कवायद में जाने-अनजाने पीएम मोदी के मुकाबले बीजेपी के ही पहले और बेहद लोकप्रिय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कमजोर दिखाया गया है.
हालांकि, सर्वे पर भरोसा करें तो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू आजादी के इतने वर्षों बाद भी लोकप्रिय हैं, क्या नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री के पद से हटने के पांच-दस साल बाद लोकप्रियता बरकरार रख पाएंगे? खैर, जनता के नज़रिए से सर्वे के परिणाम बदल सकते हैं, परन्तु सर्वे से जनता का नजरिया नहीं बदला जा सकता है, इसलिए जहां तक संभव हो सर्वे में सच्चाई झलकनी चाहिए, क्योंकि सर्वे के बनावटी नतीजों से किसी नेता की इमेज लंबे समय तक नहीं बचाई जा सकती है, अलबत्ता मीडिया की साख पर जरूर धब्बा लग सकता है!