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एन. के. सिंह का ब्लॉगः राजनीतिक दल कैसे बदल रहे जनसंवाद के मुद्दे! 

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: October 7, 2018 05:19 IST

जन-विमर्श के धरातल पर मुद्दे क्या हैं! आरक्षण, नए अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून में सवर्णो की तत्काल गिरफ्तारी या नहीं, गांधी और जिन्ना के फोटो बापू के जन्मदिन पर क्यों? मायावती या अखिलेश यादव की ऐसे राज्यों को लेकर राजनीतिक सौदेबाजी जहां ये शायद ही कभी जाते हों या जहां के अनुसूचित जाति के लोगों और यादवों से उनका कोई भी संपर्क हो। 

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एन. के. सिंह  

पिछले सप्ताह की कुछ खबरों की प्रकृति देखें तो आपको भारतीय चुनाव-राजनीति की दशा-दिशा समझ में आ जाएगी। चुनाव से जूझ रही भाजपा-शासित राज्य सरकारों के विरोधी स्वर को देख केंद्रीय गृह मंत्रालय ने देश के सभी राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों को सख्त लहजे में लिखा है कि वे नए अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून, 2018 का अक्षरश: पालन करें। सभी सरकारों को भेजे गए पत्र में इस कानून की धारा 18(अ) के संदर्भ में केंद्र ने आगाह किया कि इस प्रावधान के तहत किसी भी गैर दलित के खिलाफ शिकायत आने पर आरोपी की गिरफ्तारी के लिए न तो प्रारंभिक जांच की जरूरत है न ही किसी वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति की। 

उधर चुनाव के भंवर में फंसे मध्य प्रदेश ही नहीं कई अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी इस नए कानून के खिलाफ अपनी जनसभाओं में आंदोलन कर रहे सवर्णो को आश्वस्त किया है कि बगैर प्रारंभिक जांच या राजपत्रित अधिकारी की अनुमति के इस धारा में गिरफ्तारी नहीं होगी। अनुसूचित जाति /जनजाति कन्फ्यूज हैं कि केंद्र की मोदी सरकार उसकी हितैषी है तो भाजपा-शासित राज्य सरकारें किसके पक्ष में हैं। दूसरी तरफ सवर्णो में भी प्रतिलोम कन्फ्यूजन है। 

दूसरी खबर है बसपा प्रमुख और दलित नेता मायावती ने विपक्षी एकता की संभावनाओं के ताबूत पर अपनी तरफ से लगभग आखिरी कील ठोंक दी, यह कह कर कि ‘कांग्रेस जातिवादी और सांप्रदायिक मनोभाव वाली पार्टी है और इसके कुछ नेता बसपा को खत्म करना चाहते हैं। हालांकि सोनिया गांधी और राहुल गांधी बसपा से समझौता चाहते हैं।’ 

मायावती ने ऐलान किया कि फिलहाल मध्य प्रदेश और राजस्थान में बसपा अकेले ही चुनाव लड़ेगी।  बसपा नेता ने यह भी कहा कि यह पार्टी (कांग्रेस)  भाजपा को हराने के प्रति गंभीर नहीं है। उधर दो दिन पहले कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने मायावती पर वार करते हुए कहा था कि सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय का डर दिखा कर केंद्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने मायावती को यह सब कुछ करने को मजबूर किया है। 

दूसरी ओर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बुलंद आवाज में कहा ‘आरक्षण कोई खत्म नहीं कर सकता।’ जबकि लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कहा, ‘आखिर आरक्षण का वास्तव में कितना लाभ हुआ है , देखना पड़ेगा।’ 

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में राष्ट्रपिता गांधी का जन्म-दिवस मनाने के लिए जो चित्र-प्रदर्शनी लगाई गई उसमें 99 प्रतिशत चित्र में जिन्ना को गांधी के साथ दिखाया गया। जाहिर है भाजपा इसे लेकर भड़की है। मीडिया में चर्चा गर्म है। 

यानी जन-विमर्श के धरातल पर मुद्दे क्या हैं! आरक्षण, नए अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून में सवर्णो की तत्काल गिरफ्तारी या नहीं, गांधी और जिन्ना के फोटो बापू के जन्मदिन पर क्यों? मायावती या अखिलेश यादव की ऐसे राज्यों को लेकर राजनीतिक सौदेबाजी जहां ये शायद ही कभी जाते हों या जहां के अनुसूचित जाति के लोगों और यादवों से उनका कोई भी संपर्क हो। 

अब जरा एक गंभीर पहलू पर गौर करें। सन 2018-19 के बजट दस्तावेज में बताया गया है देश की कुल जनसंख्या 132 करोड़ है इनमें कुल सरकारी (राज्य और केंद्र जोड़ कर) कर्मचारी 2.15 करोड़ हैं और अनुसूचित जाति के मात्र 36 लाख और उनमें भी अधिकांश ग्रुप 4 के यानी सफाई कर्मचारी या चपरासी। हर साल देश में लगभग 45 लाख अनुसूचित जाति के नए युवा रोजगार की तलाश में शामिल हो जाते हैं जबकि बजट दस्तावेज के अनुसार उन्हें इस साल केंद्रीय सेवाओं में केवल 45 हजार पद इस वर्ग के लिए आरक्षण कोटे में हैं। अगर राज्यों को भी जोड़ दें तो करीब तीन लाख। अर्थात हर साल 42 लाख अनुसूचित जाति के नए युवा बेरोजगारी की स्थिति में गरीबी का दंश झेलते हैं। तो राजनीतिक दलों से मांग होनी चाहिए कि शिक्षा, भोजन, स्वास्थ्य के समुचित अवसर मिलें ताकि आरक्षण के मायने ही खत्म हो जाएं। पर ऐसा करने पर उनकी राजनीति ही  बंद हो जाएगी। 

जनतंत्र के आगाज के दौरान ही राजनीतिशास्त्न के प्रसिद्ध चिंतक जेरमी बेंथैम, अलेक्स डी टाकविल, जॉन स्टुअर्ट मिल और जेम्स ब्राइस ने कहा था कि लोकतंत्र को मजबूत करना तभी संभव है जब स्वस्थ और पूर्ण तार्किक सोच से पैदा हुए जनमत का दबाव सरकारों पर बना रहे। इसीलिए उन्होंने प्रेस स्वतंत्रता को भी अपरिहार्य गुणक बताया। लेकिन भारत में राजनीतिक दल को प्रमुखता देने वाला मीडिया यह नहीं समझ सका कि वोट के लिए ये पार्टियां रातों-रात मुद्दा बदल देंगी और मीडिया केवल उन पर खबरें देकर रह जाएगा।

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