राजेश बादल का ब्लॉग : लखीमपुर खीरी हादसे से विपक्ष को भी संदेश

By राजेश बादल | Published: October 12, 2021 10:38 AM2021-10-12T10:38:33+5:302021-10-12T10:41:26+5:30

नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन साल भर से गांधीवादी तरीके से चल रहा है। आंदोलन के कर्ताधर्ताओं ने अभी तक किसी सियासी पार्टी को अपना मंच इस्तेमाल नहीं करने दिया है। मगर इससे विपक्षी दलों की भूमिका समाप्त नहीं हो जाती।

Lakhimpur Kheri Violence Gives Messages to Opposition parties | राजेश बादल का ब्लॉग : लखीमपुर खीरी हादसे से विपक्ष को भी संदेश

लखीमपुर खीरी हिंसा

Highlightsयूपी में कांग्रेस ने विरोध का स्वर अचानक हल्ला बोल और आक्रामक शैली में मुखरित किया है। बसपा, सपा अब इस बूढ़ी पार्टी के जवान तेवरों से भयभीत दिखाई दे रही हैं।

तराई के लखीमपुर खीरी का जघन्य संहार अब केवल प्रादेशिक मसला नहीं रह गया है। बीते सप्ताह घटनाक्रम ने जिस तरह सियासत को गरमाए रखा, वह ऐतिहासिक है। भारतीय लोकतंत्न की खूबी है कि यह देश एक सीमा तक अधिनायकवादी विचारों व कामकाज की शैली को बर्दाश्त करता है। जैसे ही यह मानसिकता लक्ष्मण रेखा पार करती है तो मुल्क आगबबूला हो जाता है। फिर कोई कितना भी बड़ा तानाशाह क्यों न हो, उसे अवाम के सामने झुकना ही पड़ता है। 

हालांकि लखीमपुर खीरी के मामले का अभी पटाक्षेप नहीं हुआ है, लेकिन जिस ढंग से देश ने इस कांड में एक मंत्नी के बेटे की भूमिका पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह यह समझने के लिए काफी है कि तंत्न मनमाने तरीके से लोक की उपेक्षा नहीं कर सकता। एक मायने में यह हिंदुस्तान की राजनीति में विपक्ष के लिए संदेश है कि यदि वह जनभावनाओं का आदर नहीं करेगा तो लोग सीधी लड़ाई लड़ने के लिए भी घरों से निकलने को तैयार हैं। 

अरसे तक उत्तर प्रदेश में परचम फहराती रही कांग्रेस ने समय रहते इस संदेश को पढ़ लिया अन्यथा समूचे प्रतिपक्ष के लिए यह एक गंभीर चुनौती बन सकता था। सूबे के नागरिक अभी भी इस मामले में जिम्मेदार अन्य विपक्षी पार्टियों को खोज रहे हैं। नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलन साल भर से गांधीवादी तरीके से चल रहा है। आंदोलन के कर्ताधर्ताओं ने अभी तक किसी सियासी पार्टी को अपना मंच इस्तेमाल नहीं करने दिया है। 

मगर इससे विपक्षी दलों की भूमिका समाप्त नहीं हो जाती। वे यह कहकर अपने दायित्व से पल्ला नहीं झाड़ सकते कि वे तो साथ देने के लिए तैयार हैं पर किसान समर्थन लेना ही नहीं चाहते। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफअनेक संगठन या चेहरे महात्मा गांधी के साथ नहीं आते थे, लेकिन वे अपने घर के दरवाजे बंद करके नहीं बैठ जाते थे। अपने-अपने स्तर पर वे आजादी के संघर्ष को बढ़ाने का काम ही करते थे। 

असली लोकतंत्र भी यही कहता है कि समाज का एक वर्ग यदि नैतिक मजबूती के साथ व्यवस्था के विरोध में सड़क पर आता है तो शेष भारत उसमें किसी तरह योगदान देता है। इन दिनों हर नागरिक की भारत के विपक्षी दलों पर नजर है। वे देख रहे हैं कि संविधान के अनुच्छेद-3 के अनुसार शपथ लेने के बाद एक मुख्यमंत्री और एक केंद्रीय मंत्री अपने बयानों से शपथ का मखौल उड़ाते हैं, 

उससे भड़ककर किसान आंदोलन हिंसक हो जाता है तो कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, तेलुगुदेशम, शिवसेना, राष्ट्रीय जनता दल, जेडीयू, जननायक जनता पार्टी, वामपंथी पार्टियां, तेलंगाना राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस, अकाली दल और बीजू जनता दल जैसी पार्टियां क्या दृष्टिकोण रखती हैं? विधानसभाओं में विरोध प्रस्ताव पारित करने या अकाली दल की तरह सरकार से अलग होने मात्र से कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती। 

कृषि कानून किसी एक प्रदेश पर लागू होने वाले नहीं हैं। यदि महीनों बाद भी कई दलों ने चुप्पी साध रखी है तो अर्थ स्पष्ट है कि इन क्षेत्नीय पार्टियों का आकार इसी वजह से बौना है क्योंकि वे राष्ट्रीय हित में सही समय पर अपना नजरिया अवाम के सामने पेश करने में अक्षम रही हैं। यदि वे कृषि कानूनों के समर्थन में भी हैं तो उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए। संभव है कि इस सियासी मंथन से समाधान का कोई अमृत कलश निकल आए लेकिन उन्हें तटस्थ रहने की अनुमति जम्हूरियत की कोई किताब नहीं देती। वे तटस्थ प्रेक्षक बनकर नहीं रह सकतीं।

कांग्रेस ने इस विराट प्रदेश में विरोध का स्वर अचानक हल्ला बोल और आक्रामक शैली में मुखरित किया है। यह अन्य विपक्षी दलों के लिए नींद से जागने जैसा है। प्रदेश में चुनाव दर चुनाव बिखर रही कांग्रेस से उन्हें ऐसी अपेक्षा नहीं थी। किसी जमाने में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाकर ही बसपा और सपा ने अपना विस्तार किया था। अब वे इस बूढ़ी पार्टी के जवान तेवरों से भयभीत दिखाई दे रही हैं। 

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी अब तक के सबसे हमलावर रूप में हैं और उस दौर की याद दिला रही हैं, जब इंदिरा गांधी ने बिहार में बेलछी कांड के बाद पीड़ितों की आवाज को समर्थन देकर जोरदार ढंग से वापसी की थी। उनकी अगुआई इन दोनों पार्टियों के लिए गंभीर चिंता का सबब बन रही है। प्रियंका की सियासी सक्रियता में निरंतरता आ रही है। 

यह स्थिति उत्तर प्रदेश के दलों के लिए भारी पड़ सकती है। प्रश्न यह है कि लखीमपुर खीरी हादसे के बाद इन दोनों दलों को बेहद आक्रामक होने से किसने रोका था- खासकर उस स्थिति में, जबकि विधानसभा चुनाव सिर पर हों। मौजूदा भारत का नौजवान मतदाता अब जातियों और धर्मो के बासे तंत्न से दूर उन्मुक्त विचार विश्व में दाखिल होने के लिए तैयार है। 

विभाजन के इन आधारों पर राजनीति कर रही सारी पार्टियों के लिए यह खतरे की घंटी है और लोकतंत्न के लिए शुभ संकेत माना जा सकता है।
दरअसल, लखीमपुर खीरी जैसे हादसे प्रादेशिक मानकर छोड़े भी नहीं जा सकते। भारतीय समाज की संरचना में कुछ कुरूपताएं स्थायी तौर पर उपस्थित हैं। इस मायने में वे कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को जोड़कर रखने का काम भी करती हैं। 

ऐसे हादसे देश में कहीं भी हो सकते हैं। इसलिए राजनीतिक दलों को अपनी समझ का दायरा और व्यापक तथा परिपक्व करना होगा। यदि वे अपने आप को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं तो माफ कीजिए, यह देश भी उन्हें अनंत काल तक ढोने या बर्दाश्त करने की कसम खाकर नहीं बैठा है।

Web Title: Lakhimpur Kheri Violence Gives Messages to Opposition parties

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