जयराम शुक्ल
आज की उथली राजनीति और नेताओं के आचरण के बरक्स देखें तो अटल बिहारी वाजपेयी शुचिता की राजनीति की जीवंत प्रतिमूर्ति नजर आते हैं. वे 1957 में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर से उपचुनाव के जरिये लोकसभा पहुंचे और 1977 तक लोकसभा में भारतीय जनसंघ के संसदीय दल के नेता रहे. दिग्गज समाजवादियों से भरे प्रतिपक्ष में उन्होंने अपनी लकीर खुद तैयार की. वे पंडित नेहरू और डॉ. लोहिया दोनों के प्रिय थे. वाक्चातुर्य और गांभीर्य उन्हें संस्कारों में मिला. वे श्रेष्ठ पत्नकार व कवि थे ही. इस गुण ने राजनीति में उन्हें और निखारा.
वे 1977 के जनता पार्टी के गठन और उसके अवसान से आहत तो थे पर उनका अनुमान था कि बिना गठबंधन के दिल्ली हासिल नहीं हो सकती. सत्ता की भागीदारी के जरिये फैलाव की नीति, कम्युनिस्टों से उलट थी, इसलिए वी.पी. सिंह सरकार में भी भाजपा को शामिल रखा जबकि यह गठबंधन भी लगभग जनता पार्टी पार्ट-टू ही था.
1980 में जनसंघ घटक दोहरी सदस्यता के सवाल पर जनता पार्टी से बाहर निकला था और 1989 की वी.पी. सिंह की जनमोर्चा सरकार से राममंदिर के मुद्दे पर. 1996 में 13 दिन की सरकार ने भविष्य के द्वार खोले तब अटलजी ने अपने मित्न कवि डॉ. शिवमंगल सिंह सुमनजी की इन पंक्तियों को दोहराते हुए खुद की स्थिति स्पष्ट की थी- ‘क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं. संघर्ष पथ में जो मिले, यह भी सही, वह भी सही.’ ये पंक्तियां अटलजी के समूचे व्यक्तित्व के साथ ऐसी फिट बैठीं कि आज भी कई लोगों को लगता है कि ये पंक्तियां अटलजी की ही हैं.
अटलजी ने गठबंधन धर्म का जिस कुशलता और विनयशीलता के साथ निर्वाह किया शायद ही अब कभी ऐसा हो. वे गठबंधन को सांङो चूल्हे की संस्कृति मानते थे. एक रोटी बना रहा, दूसरा आटा गूंथ रहा तो कोई सब्जी तैयार कर रहा है, वह भी अपनी शैली में और फिर मिश्रित स्वाद. न अहं न अवहेलना.
अटलजी का व्यक्तित्व ऐसा ही कालजयी था कि असंभव सा दिखने वाला 24 दलों का गठबंधन हुआ, जिसमें पहली बार दक्षिण की पार्टियां शामिल हुईं. 1998 में जयललिता के हठ से एक वोट से सरकार गिरी. अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा, जनभावनाएं संख्याबल से पराजित हो गईं, हम फिर लौटेंगे. और एक वर्ष के भीतर ही चुनाव में वे लौटे भी और इतिहास भी रचा.