वंशवाद का अपराध बोध सभी में क्यों नहीं, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Published: August 25, 2020 01:37 PM2020-08-25T13:37:34+5:302020-08-25T13:37:34+5:30
भारतीय जनता पार्टी में नेताओं की तीसरी चौथी पीढ़ी को लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा मान लेते हैं, लेकिन जब यही दृश्य कांग्रेस में प्रकट होता है तो उनका खून खौलने लगता है.
संसार की सबसे पुरानी पार्टियों में से एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष पद एक बार फिर सुर्खियों में है. वे इस चिंता में दुर्बल हो रहे हैं कि यह दल बाहर से कोई मुखिया क्यों नहीं खोज रहा है ? एक तरह से यह वाजिब तर्क लगता है.
मगर विनम्र निवेदन है कि इस तरह की नैतिक बाध्यता की अपेक्षा बार-बार एक ही पार्टी से क्यों की जाती है ? ऐसे लोगों को कांग्रेस के विरोध में खड़े दलों के भीतर उफनते वंशवाद का विकराल रूप नहीं दिखाई देता. वे भारतीय जनता पार्टी में नेताओं की तीसरी चौथी पीढ़ी को लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा मान लेते हैं, लेकिन जब यही दृश्य कांग्रेस में प्रकट होता है तो उनका खून खौलने लगता है.
इसका उत्तर मैं अपने नजरिए से देना चाहूंगा. आजाद होने के बाद एक भारतीय के अवचेतन में महाराजा, बादशाह या गोरी हुकूमत की गुलामी का भय अभी तक नहीं निकला है. उसे आशंका बनी रहती है कि कहीं यह उत्तराधिकार परंपरा जम्हूरियत का जनाजा न निकाल दे. ऐसे में यदि किसी खानदान को बार-बार मौका मिलता रहा तो उसे अधिनायकवादी संस्थान में बदलते देर नहीं लगेगी. विडंबना है कि भारत के इस आम आदमी को अन्य दलों में इस तरह की बीमारी नजर नहीं आती.
प्रादेशिक और क्षेत्रीय दलों की बात करते हैं. समाजवादी पार्टी अपनी स्थापना की सिल्वर जुबली मना चुकी है. क्या किसी को याद है कि इसके जनक मुलायमसिंह यादव ने पार्टी की अध्यक्षी परिवार के बाहर जाने दी है. इस दल में वंश के अलावा केवल यादववाद चलता है. लोकतंत्र की किस पाठशाला में इस तरह का अध्याय पढ़ाया जाता है ? यह तो संविधान की भावना के अनुसार भी नहीं माना जा सकता. इसी तरह बहुजन समाज पार्टी का मामला है. यह दल भी साढ़े तीन दशक पूरे कर चुका है. जब तक कांशीराम जीवित रहे, वे ही पार्टी की कमान संभाले रहे.
उनके बाद मायावती पार्टी की मुखिया बनी. तबसे आज तक कोई अन्य उस कुर्सी की ओर ताक भी नहीं सकता. सच है कि मायावती ने विवाह नहीं किया और उनकी कोई संतान नहीं है, लेकिन जब तक वे पद को सुशोभित कर रही हैं, तो नंबर-दो के स्थान पर कौन है - कोई नहीं जानता.
निष्ठावान कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के साथ यह गणतांत्रिक व्यवहार तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता. कमोबेश ऐसी ही स्थिति तृणमूल कांग्रेस में है. इस राष्ट्रीय पार्टी में सुश्री ममता बनर्जी भी एकल भूमिका में हैं. स्थापना के बाइस साल के बाद भी इस दल में दूर-दूर तक किसी नए राष्ट्रीय अध्यक्ष की संभावना नहीं जगती. आंतरिक लोकतंत्र की बात कौन करे ?
महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना इन दिनों सत्ता धारी दल है. इस दल का सुप्रीमो ठाकरे परिवार का ही सदस्य होता रहा है. वहां तो इस परिवार से बाहर का कोई नेता सुप्रीमो बनने का सपना भी देख ले तो बवाल खड़ा हो जाएगा. बाल ठाकरे की विरासत उद्धव ठाकरे ने संभाली.
अब उद्धव के उत्तराधिकारी के रूप में उनके सुपुत्र भी तैयार हैं. इसी प्रदेश में शिवसेना की सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को देख लीजिए. जन्म के छब्बीस बसंत देख चुकी इस पार्टी में शरद पवार के अलावा कौन अध्यक्ष बना है. जब भी उत्तराधिकारियों का जिक्र आता है, पवार परिवार के सदस्य का ही नाम लिया जाता है. भले ही सुप्रिया या अजित में मनमुटाव की खबरें आती रहें, लेकिन जब भी पार्टी नए मुखिया के बारे में सोचेगी, वह इसी खानदान से निकल कर आएगा .
दक्षिण भारत की सियासत में देखें तो द्रमुक ( द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम ) में करुणानिधि के परिवार का विराट वटवृक्ष तमिलनाडु की सियासत में फलफूल रहा है. कौन ऐसा राजनेता है जो उस दल पर काबिज परिवार से अलग होकर अध्यक्ष बनने का ख्वाब पाल सकता है. कर्नाटक में पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा का कुनबा वंश परंपरा का निर्वाह कर रहा है तो आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस में भी जगन रेड्डी परिवार परंपरा की उपज हैं. जगन की पार्टी तो उनके स्वर्गीय पिता के नाम पर ही बनाई गई है.
जब व्यक्ति के नाम पर दल का नाम हो तो वह अपने सूबे में लोकतांत्रिक धारा कैसे बहा सकता है ? इसी राज्य में एक दौर में लोकप्रिय फिल्म अभिनेता नंद मूरि तारक रामाराव ने तेलुगु देशम का निर्माण किया. इन दिनों उनके दामाद यह पार्टी चला रहे हैं. जिन लोगों को चंद्रबाबू नायडू के कामकाज का अनुभव है, वे उनके भीतर के अधिनायक वाले रूप से भलीभांति परिचित हैं.
कुनबापरस्त पार्टियों की इस गाथा में तमिल मनीला कांग्रेस को नहीं भुला सकते. कभी कांग्रेस में इंदिरा गांधी के कृपापात्र रहे जी. के. मूपनार ने पार्टी से अलग होकर यह दल गठित किया. दल एक तरह से नाकाम रहा और उनके बेटे जी के. वासन ने बाद में कांग्रेस में ही अपने दल का विलय कर दिया.
अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो कोई भी दल कुनबापरस्ती और अपने अपने वंशजों की परवरिश करने से ऊपर उठकर काम करता नजर नहीं आता. ऐसे में आक्रमण का शिकार अकेले कांग्रेस को क्यों होना चाहिए ? जब सारे कुएं में भांग घुली हो तो उसकी एक अंजुलि से पवित्रता की उम्मीद क्यों कर होनी चाहिए. कांग्रेस को यह व्यर्थ का अपराध बोध क्यों पालना चाहिए. क्या यह सच नहीं कि सत्ताधारी दल को चुनौती देने वाला दल सिर्फ कांग्रेस है और नेतृत्व के लिए मुश्किल खड़ी करने वाला गांधी परिवार है. तो कांग्रेस कहीं इस सियासी चक्रव्यूह में तो नहीं उलझ गई है ?