अवधेश कुमार का ब्लॉग: भाजपा के सामने है अभूतपूर्व चुनौती
By अवधेश कुमार | Updated: January 9, 2020 11:11 IST2020-01-09T11:11:21+5:302020-01-09T11:11:21+5:30
भाजपा को पूरे संगठन परिवार का साथ मिलता है तथा समर्थकों में भी ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो उसके कार्यों से उत्साहित होकर स्वयं विरोधियों का सामना करने उतर रहे हैं. किंतु यह तब तक अपर्याप्त है और सफलता की पंक्तियों में बड़े प्रश्नचिह्न हैं जब तक पार्टी के सिपाही अगुवाई करते न दिखें.

अवधेश कुमार का ब्लॉग: भाजपा के सामने है अभूतपूर्व चुनौती
अगर देश की एक समग्र तस्वीर बनाएं तो बिल्कुल साफ दिखाई देगा कि भाजपा के सामने चुनौतियां का पहाड़ खड़ा हो रहा है. नागरिकता संशोधन कानून तथा राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर पर पूरा विपक्ष उसके खिलाफ खड़ा है. सामान्य तौर पर देखने से ये चुनौतियां बड़ी न लगें, पर गहराई से विचार करते ही इसका बहुआयामीपन नजर आने लगता है.
भाजपा के लिए बड़ी चिंता का पहलू पिछले वर्ष के तीन विधानसभा चुनावों में आंतरिक कलह, अनुशासनहीनता तथा विद्रोह के रूप में सामने आया है. विरोधियों के इतने सघन हमले में भाजपा सफल होकर =तभी निकल सकती है जब उसका अपना संगठन आंतरिक तौर पर ऊर्जस्वित रहते हुए संपूर्ण एकजुटता के साथ सामना करे. जो साहस, समझ और शक्ति मोदी और शाह प्रदर्शित कर रहे हैं, नीचे आते ही पायदान-दर-पायदान ज्यादातर नेताओं और कार्यकर्ताओं में उसका रत्तीभर अंश नहीं दिखता.
पार्टी ने कार्यक्र में दे दिया तो औपचारिकता की पूर्ति कर दो. आरपार की वैचारिक-राजनीतिक लड़ाई मानकर प्राणपण से जुटने का संकल्प पार्टी मशीनरी में न के बराबर है. यही नहीं सरकार के सामाजिक-आर्थिक विकास सहित जनकल्याणकारी कार्यक्रमों को जमीनी स्तर पर पूरी तरह उतारने के लिए पार्टी मशीनरी को जितना सक्रिय होना चाहिए उसका भी अभाव है.
औपचारिकता पूरी करने के चरित्र का मतलब ही है कि पार्टी के प्रति निष्ठावान तथा विचार के प्रति समर्पित नेताओं-कार्यकर्ताओं का अभाव है. पद और कद को प्राथमिकता मानने वाली मशीनरी से इस तरह की लड़ाई में सफलता हमेशा संदिग्ध बनी रहती है. तो प्राथमिक चुनौती पार्टी मशीनरी की ओवरहॉलिंग करने की है. एक ओर युद्ध और दूसरी ओर सेना को तैयार करने का काम एक साथ करना कितना कठिन है इसकी कल्पना की जा सकती है.
हालांकि भाजपा को पूरे संगठन परिवार का साथ मिलता है तथा समर्थकों में भी ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो उसके कार्यों से उत्साहित होकर स्वयं विरोधियों का सामना करने उतर रहे हैं. किंतु यह तब तक अपर्याप्त है और सफलता की पंक्तियों में बड़े प्रश्नचिह्न हैं जब तक पार्टी के सिपाही अगुवाई करते न दिखें. इसके बगैर बहुत कुछ करना कठिन है.
पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के बाद हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में वह केवल हरियाणा में गठबंधन सरकार बनाने में कामयाब हुई. महाराष्ट्र में उसके पुराने सहयोगी शिवसेना ने दूसरे दलों के साथ सरकार बना ली तो झारखंड में यह पराजित हो गई. साफ दिख रहा था कि केंद्रीय नेतृत्व चाहते हुए भी स्थानीय असंतोष, विद्रोह एवं कलह को नहीं रोक पाया.