विजय दर्डा का ब्लॉग: क्षमता, आशा और जीत के जज्बे को सलाम!

By विजय दर्डा | Updated: August 9, 2021 09:25 IST2021-08-09T09:25:47+5:302021-08-09T09:25:47+5:30

टोक्यो ओलंपिक और उससे पहले भी हमने देखा है कि सामान्य और अति सामान्य वर्ग से निकले खिलाड़ियों ने तमाम परेशानियों के बावजूद देश का नाम रौशन किया है।

Vijay Darda blog: Tokyo Olympic Salute to Indian Players and their spirit of victory | विजय दर्डा का ब्लॉग: क्षमता, आशा और जीत के जज्बे को सलाम!

टोक्यो ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों का शानदार रहा प्रदर्शन (फाइल फोटो)

टोक्यो ओलंपिक में ‘जन गण मन’ की धुन जब बज रही थी और उसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनाई दे रही थी तो करोड़ों करोड़ भारतवासी रोमांचित थे. इस गौरव की वजह थे नीरज चोपड़ा जिन्होंने भारत माता के भाल पर स्वर्ण तिलक लगाया. 

उल्लास और उमंग के बीच हिंदुस्तान की धमनियों में त्याग का रक्त प्रवाहित हो रहा था जैसे नीरज चोपड़ा कोई विश्व युद्ध जीत कर लौटे हों! हर हिंदुस्तानी दिल जैसे कह रहा है..नीरज चोपड़ा तुझे सलाम, पीवी सिंधु तुझे सलाम, मीराबाई तुझे सलाम, पुनिया तुझे सलाम. हमारी बेटियों तुम्हें सलाम! हॉकी को सलाम, हॉकी के खिलाड़ियों को सलाम! किस किस का नाम लूं..हर खिलाड़ी को सलाम. जो विजयी न हो सके, उन्हें भी सलाम! खेल के जज्बे को सलाम! तिरंगे को सलाम. हे मां, तुम्हें सलाम!

रक्षाबंधन का त्यौहार आने वाला है और करोड़ों करोड़ भारतीयों ने अपनी कलाई सामने कर दी है. न जात देख रहे हैं न पांत देख रहे हैं, न धर्म देख रहे हैं. न ब्रांड देख रहे हैं. केवल एक तिरंगा देख रहे हैं और ‘जन गण मन’ की धुन सुन रहे हैं. यही हिंदुस्तान है. यही मेरा भारत है. 

एक समय था जब ओलंपिक में हम केवल हॉकी के लिए जाने जाते थे लेकिन वक्त बदला है और अमूमन  सभी खेलों में देश प्रतिनिधित्व कर रहा है. इसे मैं आने वाले वक्त के लिए एक शुभ संकेत मानता हूं. लेकिन हमें यह समझना होगा कि जीत के लिए कई चीजें आवश्यक होती हैं. 

इस ओलंपिक में भारत के जो भी खिलाड़ी आए, सामान्य और अति सामान्य वर्ग से आए लोग हैं. इनके पास न खाने को था न पीने को था, न ओढ़ने को था, न पहनने को था. मगर जज्बा था. कुछ करने की चाहत थी जो उन्हें ओलंपिक तक ले गई. मीराबाई चानू के पास अपने गांव से इंफाल तक रोज 25 किलोमीटर का सफर तय करने के लिए पैसे नहीं होते थे. रेत ढोने वाले ट्रकों पर सवार होकर वे एकेडमी पहुंचती थीं. ओलंपिक मेडल जीतने के बाद चानू ने ट्रक ड्राइवरों का सम्मान किया है.

मैं साइना नेहवाल पर बनी फिल्म देख रहा था. हरियाणा के एक छोटे से गांव में साइना का जन्म हुआ लेकिन उनकी मां उषा नेहवाल का जज्बा देखिए कि जब वे स्थानीय प्रतियोगिता में खेलने उतरीं तो वे सात महीने के गर्भ से थीं. साइना उनके पेट में थी. 

साइना पैदा हुई. किस तरह से उसे दुत्कारा गया, यह भी हमने देखा. बस में बिठाकर साइना को उनकी मां लालबहादुर शास्त्री एकेडमी हैदराबाद लेकर गईं. मां ने रैकेट दिया और कहा कि तुम्हें जग जीतना है. आखिर साइना क्या बनी, यह दुनिया ने देखा. वही कहानी सिंधु की है. कितने किस्से मैं आपको सुनाऊं?  

हमें यह समझना होगा कि कोई भी देश पहचाना जाता है अपने खिलाड़ियों से, अपने वीर जवानों से, विज्ञान और तकनीक से. इससे नहीं पहचाना जाता है कि देश में कितने करोड़पति या खरबपति बन गए. उन खरबपतियों ने क्या योगदान दिया इससे जरूर देश पहचाना जाता है. हां, मैं मानता हूं कि उद्योग से ही हाथों को काम मिलता है और ये उद्योग खेल के विस्तार और पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. सरकार को उन्हें साथ लेकर चलना होगा. 

सरकार का अपना विजन होना चाहिए. आज तक जितने भी मेडल्स मिले हैं उनमें से ज्यादातर हॉकी में मिले हैं. वह अब इतिहास हो चुका है और उसे मैं दोहराना नहीं चाहता हूं. ‘जादूगर’ ध्यानचंद और हिटलर की क्या बात हुई या उस तरह के दूसरे किस्से..!

ओलंपिक में हमारा इतिहास 121 साल पुराना है. छोटे-छोटे देश हैं जिन्होंने मेडल्स की भरमार की हुई है तो हम क्यों नहीं कर सकते? लेकिन इसमें सरकार की असली भूमिका होती है और यही बात मैंने सन् 2004 में संसद में कही थी. सरकार को एक समग्र नीति तैयार करनी होगी और सख्ती से उसे लागू भी करना होगा. उसकी शुरुआत सात साल के बच्चों से होगी. उनकी सारी जिम्मेदारी सरकार लेगी. किस खेल के योग्य कौन सा बच्च है इसकी पहचान, उनका प्रशिक्षण, उनका आहार-विहार, खेल की दर्जेदार सामग्री और उनके मानसिक प्रबोधन की आला दर्जे की व्यवस्था करनी होगी. 

इसके लिए उद्योग जगत की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी. ये सारे तत्व यदि हम एक जगह लाएंगे तो जिस तरह से दुनिया में आईटी सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में हम बेताज बादशाह बने हैं वैसे ही खेल में भी बन सकते हैं. यह हमने क्रिकेट में करके दिखाया है. यह और बात है कि मुट्ठी भर देशों का यह खेल है. मान्यता प्राप्त खेलों में इसका कोई स्थान नहीं है. 

एक समय था जब हम आईटी के हार्डवेयर में भी सरताज बन सकते थे. उस वक्त मैंने संसद में आगाह किया था कि कहीं वक्त न चूक जाए लेकिन हमने वक्त गंवा दिया. आज ताइवान जैसे छोटे-छोटे देशों के पास आईटी हार्डवेयर के सैकड़ों पेटेंट हैं. हम पीछे रह गए. खेल के क्षेत्र में किसी भी सूरत में हमें वक्त नहीं गंवाना चाहिए.  

मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाया है. खेलों के प्रति वे अत्यंत सजग हैं. लेकिन जब मैं यह देखता हूं कि पूरे देश में दबदबा रखने वाले हमारे राज्य महाराष्ट्र का क्या योगदान रहा तो मेरा सिर झुक जाता है. मैं पुरानी बातें दोहराना नहीं चाहूंगा कि अंजलि भागवत के साथ क्या हुआ था? जब वह विश्व चैंपियनशिप के लिए जा रही थीं तो सवाल किए जा रहे थे कि तुम वहां जाकर क्या करोगी? 

पिस्टल के लाइसेंस के बारे में और जाने को लेकर आखिरी तक वह टेंशन में थी. लोगों ने उसे रुलाकर छोड़ा था. ऐसे किस्से देश भर में भरे पड़े हैं. बदलना चाहिए! ये सारी स्थिति बदलनी चाहिए! खेल प्राधिकरण का पूरा रवैया बदलना चाहिए! एक समर्पित मंत्री होना चाहिए जो केवल यही देखे. उसके पास दूसरा कोई काम नहीं हो और उसका सीधे प्रधानमंत्री से संबंध हो. यदि हम आदिवासी बच्चों को खेल के प्रवाह में ला पाए तो हमारे पास खिलाड़ियों की कोई कमी नहीं होगी लेकिन उन्हें क्रिकेट के ग्लैमर से बचाना होगा. मैं क्रिकेट के खिलाफ नहीं हूं लेकिन एक खेल के लिए दूसरे खेलों की बलि चढ़ जाए, यह भी नहीं चाहता.

और हां, ओलंपिक में यदि मैं चीन या जापान के साथ भारत की तुलना करूंगा तो निराशा आएगी. हम लोग आशावान हैं. हम में क्षमता है. बस खेल का पर्यावरण यदि सुधर जाए तो हम भी दुनिया को अपना कमाल दिखा सकते हैं.
गोल्ड मेडल के साथ जन गण मन की धुन गूंजती रहनी चाहिए..!

Web Title: Vijay Darda blog: Tokyo Olympic Salute to Indian Players and their spirit of victory

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