रमेश ठाकुर का ब्लॉगः रंगमंच कलाकारों के प्रति उदासीनता   

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 27, 2019 02:59 PM2019-03-27T14:59:10+5:302019-03-27T14:59:10+5:30

प्राचीन युग में रंगमंच कला मात्र राजा-महाराजाओं के शौक तक सीमित थी, लेकिन आजादी के बाद इसका विस्तार हुआ. देखते-देखते यह कला सभी के दिलों पर राज करने लगी. इसके बाद सिनेमा के रूप में जन्मी पर्दे की रंगमंची दुनिया ने पारंपरिक रंगमंच के स्वर्णिक काल पर कब्जा जमाने की भरसक कोशिश की, लेकिन असफल रही.

world theatre day: apathy towards theatre artists | रमेश ठाकुर का ब्लॉगः रंगमंच कलाकारों के प्रति उदासीनता   

रमेश ठाकुर का ब्लॉगः रंगमंच कलाकारों के प्रति उदासीनता   

रमेश ठाकुर

आज 27 मार्च को पूरे संसार में ‘विश्व रंगमंच दिवस’ मनाया जा रहा है. पारंपरिक थिएटर को लेकर आज भी घरेलू दर्शकों में दीवानगी है. शादी, पारिवारिक कार्यक्रमों व अन्य उत्सवों में नाटक-नौटंकी कभी शोभा बढ़ाया करती थीं. लेकिन समय के साथ रिवायतें बदलीं, परंपराएं बदलीं और बदल गया दर्शकों का मनोरंजन आस्वाद. हालांकि रंगमंच और लोकरंग का वजूद आज भी कायम है. 

समझा जाता है कि नाटय़कला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ था. एक जमाना था जब मनोरंजन का सबसे सुगम साधन सिर्फ रंगमंच हुआ करता था. उसके बाद सिनेमा का विस्तार ज्यादा हुआ. लेकिन रंगमंच और सिनेमा दोनों का स्वाद आज भी एक दूसरे से अलग है. सिनेमा में जहां किरदार एक रील में होते हैं, वहीं नाटक में सजीव व्यक्ति संवाद करता है. नाटक को मुगल काल में उस प्रकार का प्रोत्साहन नहीं मिला जिस प्रकार का प्रोत्साहन अन्य कलाओं को मुगल शासकों से प्राप्त हुआ था. बावजूद इसके ‘रंगमंच’ कला समूचे भारतवासियों के लिए सदियों से धरोहर के समान रही. 

प्राचीन युग में रंगमंच कला मात्र राजा-महाराजाओं के शौक तक सीमित थी, लेकिन आजादी के बाद इसका विस्तार हुआ. देखते-देखते यह कला सभी के दिलों पर राज करने लगी. इसके बाद सिनेमा के रूप में जन्मी पर्दे की रंगमंची दुनिया ने पारंपरिक रंगमंच के स्वर्णिक काल पर कब्जा जमाने की भरसक कोशिश की, लेकिन असफल रही. चलचित्र सिनेमा ने रंगमंच को नुकसान तो पहुंचाया, पर रंगमंच का संसार आज भी शाश्वत है.  

रंगमंच का संसार तेजी से बदल रहा है. दर्शक अब सिनेमा की तरफ भाग रहे हैं, जिसका मुख्य कारण भी हमारे सामने है. दरअसल रंगमंच की ओर सरकार की उदासीनता के चलते लोगों का इस कला से मोहभंग हो रहा है. रंगमंच के लिए सरकारी व स्थानीय प्रशासन की ओर से कोई सुविधा नहीं है. 

यही कारण है कि अब परिभ्रामी रंगमंच बनने शुरू हो गए हैं, जिनमें एक दृश्य समाप्त होता है तो रंगमंच घूम जाता है और दूसरा दृश्य जो उसमें अन्यत्र पहले से ही सजा तैयार रहता है, सामने आ जाता है. इसमें कुछ क्षण ही लगते हैं. दरअसल ये रंगमंच का नहीं, बल्कि आधुनिक सिनेमाई रूप है, जिसे जबर्दस्ती दर्शकों पर थोपा जा रहा है. रंग और मंच दोनों जिंदा रहें इसके लिए सरकारों को इच्छाशक्ति दिखाने की जरूरत है.

Web Title: world theatre day: apathy towards theatre artists

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