राजेश बादल का ब्लॉग: दलित और आदिवासी हमारी चिंताओं में कहां हैं ?

By राजेश बादल | Published: July 11, 2023 06:56 AM2023-07-11T06:56:05+5:302023-07-11T06:57:53+5:30

आज हम मजहब के नाम पर तमाम रूढ़ियों से जकड़े हुए हैं, पर एक बार आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं और उनके दर्शन को जानने का प्रयास कीजिए, पता लगता है कि वे हमसे बहुत आगे हैं, फिर स्वतंत्र भारत में हम उन्हें मुख्य धारा में क्यों शामिल नहीं करना चाहते?

Where are Dalits and Adivasis in our concerns? | राजेश बादल का ब्लॉग: दलित और आदिवासी हमारी चिंताओं में कहां हैं ?

राजेश बादल का ब्लॉग: दलित और आदिवासी हमारी चिंताओं में कहां हैं ?

वह एक भयावह, क्रूर, अमानवीय और शर्मनाक वारदात थी. एक आदिवासी के चेहरे पर सिगरेट पीते हुए एक राजनेता का प्रतिनिधि पेशाब करता है. तीसरा व्यक्ति उसका वीडियो बनाता है और देशभर में फैला देता है. कहानी यहीं समाप्त नहीं होती. दो दिन तक वह आदिवासी प्रशासन की पकड़ में रहता है. परिवार वाले उसे खोजते रहते हैं. उसे जबरन भोपाल ले जाया जाता है. 

प्रदेश के मुखिया कैमरा टीमों को बुलाते हैं. फिर उस पीड़ित आदिवासी के पैर धोने का दृश्य दिखाई देता है. यह दृश्य भी देशभर में प्रचारित किया जाता है. जब मुखियाजी पीड़ित की पत्नी से फोन पर बात करके आर्थिक मदद की बात करते हैं तो उसकी पत्नी कहती है कि उसे तो सिर्फ पति चाहिए और किसी सहायता की जरूरत नहीं. 
इसके बाद भी फोन पर राज्य सरकार की चुनावी योजनाओं की बात की जाती रही. अजीब सी बात है कि इस मामले में आरोपी के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाया गया, जबकि उसका अपराध इस कानून में नहीं आता. इस घटना को दो दिन ही बीते कि एक दलित नौजवान को चंबल इलाके में दबंगों ने अपने तलवे चाटने पर मजबूर कर दिया. इन दो घटनाओं के अलावा भी इन दिनों प्रायः रोज ही ऐसी वारदातें सामने आ रही हैं.

सप्ताह में एक ही प्रदेश से लगातार दर्द भरी दास्तानें हमारे कथित सभ्य समाज पर अनेक सवाल खड़े करती हैं. वह भी उस वर्ग के बारे में, जिसे खास तौर पर विशेष संवैधानिक प्रावधानों से संरक्षित किया गया है. इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार अधिनियम की धाराएं भी ऐसे प्रसंगों में बेहद कठोर हैं. 

यदि गैरआदिवासी वर्ग का कोई प्रभावशाली व्यक्ति उन पर अत्याचार करता है तो उसके लिए अपराध से मुक्त होना आसान नहीं है. इसके बावजूद हम देखते हैं कि इस वर्ग के साथ समाज की ओर से लगातार जुल्मों की कहानियां सामने आती रहती हैं. कई बार व्यवस्था तंत्र भी उन्हें प्रताड़ित करने से बाज नहीं आता. वनोपज के अधिकार से वे शनैः शनैः वंचित किए जा रहे हैं. वन और प्राणी संरक्षण के नाम पर वे बार-बार अपने बसेरों से उजाड़े जाते हैं. उन्हें मुआवजा मिलने में बरसों लग जाते हैं. 

भारत की कुल आबादी का दस फीसदी से भी अधिक आदिवासी हैं. यानी लगभग बारह-तेरह करोड़ लोगों को आज भी समाज की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. इस आबादी का हिसाब लगाएं तो संसार के पचास से अधिक देशों की जनसंख्या हिंदुस्तान के आदिवासियों से कम है. 

स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी आदिवासियों को अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है. सियासी पार्टियां और सामाजिक सोच इस वर्ग को उसका संवैधानिक हक देने के लिए अनमना है.

याद करना होगा कि भारत के कितने प्रदेशों में आदिवासी मुख्यमंत्री के शिखर पद तक पहुंच सके हैं? उत्तर निराशाजनक ही आएगा. मध्यप्रदेश में एक बार आदिवासी नेता शिवभानु सोलंकी के साथ विधायकों का बहुमत था, लेकिन उन्हें अवसर नहीं दिया गया. उस समय आदिवासी वर्ग बड़ा आहत हुआ था. उपमुख्यमंत्री के पद तक वे जरूर पहुंचे, पर उनके हाथ बंधे रहते थे. उनके साथ ऐसे विभागीय अफसर तैनात किए जाते थे, जो सीधे मुख्यमंत्री से निर्देश लेते थे और उपमुख्यमंत्री बेचारा लाल बत्ती की गाड़ी और बंगले में ही संतुष्ट रहता था. सरकार संचालन में उसकी कोई भागीदारी नहीं रहती थी. 

मध्यप्रदेश में एक बार दो आदिवासी उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे. उनमें एक महिला थीं. अपनी उपेक्षा से दुखी होकर एक बार तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि वे मुख्यमंत्री के तंदूर में जल रही हैं. कुछ दिनों तक इस बयान से खलबली मची. बाद में वही ढाक के तीन पात. पूर्वोत्तर प्रदेशों को निश्चित रूप से मुख्यमंत्री मिले हैं. मगर अनुभव बताता है कि संवेदनशील और सीमा पर स्थित होने के नाते उन राज्यों में राज्यपाल भी शक्ति संपन्न होते हैं और मुख्यमंत्री सब कुछ अपने विवेक से नहीं कर पाते. झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी प्रदेशों में भी आदिवासियों के कल्याण की तमाम योजनाएं बनीं, लेकिन उनका लाभ कम ही मिल पाया.

प्रश्न यह भी उठता है कि आदिवासी संस्कृति को हमारा भारतीय समाज कितना स्वीकार कर पाया है. हम आज जिस परंपरागत ढांचे से निकलकर आधुनिकता की दौड़ में शामिल होना चाहते हैं, उसमें तो हमारा आदिवासी समाज सदियों से जी रहा है. आज लिव इन रिलेशनशिप और प्रेम विवाहों में भारतीय समाज दस बार सोचता है, लेकिन आदिवासी समुदाय हमसे बहुत आगे है. 

आज हम मजहब के नाम पर तमाम रूढ़ियों से जकड़े हुए हैं, पर एक बार आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं और उनके दर्शन को जानने का प्रयास कीजिए, पता लगता है कि वे हमसे बहुत आगे हैं, फिर स्वतंत्र भारत में हम उन्हें मुख्य धारा में क्यों शामिल नहीं करना चाहते? हम उनके भगौरिया और घोटुल जैसे वैज्ञानिक उत्सवों को तमाशबीनों की तरह देखते हैं. 

उनके दर्शन को हम अपनाना नहीं चाहते पर चाहते हैं कि वे हमारी धार्मिक धारा में साथ बहने लगें. एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में यह कौन स्वीकार कर सकता है कि तेरह करोड़ मतदाताओं को न सम्मान मिले और न सियासत में स्थान. यह विसंगति हमें दूर करनी होगी.

Web Title: Where are Dalits and Adivasis in our concerns?

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