फिजूलखर्ची रोकने और सहेजने से ही बचेगा पानी

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: April 11, 2025 07:12 IST2025-04-11T07:11:28+5:302025-04-11T07:12:08+5:30

शहरों में कांक्रीटीकरण के चक्कर में कोई ऐसी जगह ही नहीं बचती जहां बरसात का पानी जमीन में समा सके.

Water can be saved only by preventing wasteful expenditure and saving it | फिजूलखर्ची रोकने और सहेजने से ही बचेगा पानी

फिजूलखर्ची रोकने और सहेजने से ही बचेगा पानी

भयावह गर्मी ने अपना असर दिखाना अभी शुरू ही किया है और मध्य प्रदेश में डिंडौरी जिले के गांव देवरा में बहुएं ससुराल छोड़कर अपने मायके जाने लगी हैं. वजह है जलसंकट. कुएं सूख गए हैं, हैंडपंप में पानी आ नहीं रहा और गांव में नल जल योजना होने के बावजूद नल में पानी महीने में मुश्किल से दस दिन ही आता है. यह समस्या किसी एक गांव की ही नहीं है बल्कि कम-अधिक मात्रा में इस समय लगभग पूरे देश की है.

बहुत समय पुरानी बात नहीं है जब मई-जून की गर्मी में भी लोगों का काम कुओं से ही चल जाता था, बोरवेल अपवाद स्वरूप ही कहीं-कहीं देखने को मिलते थे. लेकिन कुछ दशकों के भीतर ही भूमिगत जल का दोहन इतनी बेरहमी से हुआ कि कुओं में अब कहीं पानी दिखता भी है तो सिर्फ बरसात के मौसम में. हैंडपंप भी गर्मी का महीना आते ही जवाब दे जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि दुनिया में पानी की मात्रा घट गई है; वह तो हमेशा एक जैसी रहती है, लेकिन हमने उसके इस्तेमाल के चक्र को बिगाड़ दिया है. बरसाती पानी को पहले पेड़-पौधों, तालाबों के माध्यम से जमीन के भीतर संजोया जाता था, जिससे ग्रीष्म ऋतु में भी कुओं का पानी सूखता नहीं था. अब शहरों के तालाब तो अतिक्रमण का शिकार हो ही गए हैं, गांवों में भी जहां तालाब हैं भी, वहां फसल लेने के चक्कर में उनका लगभग खात्मा कर दिया गया है.

पेड़ों को काटने में तो हम कंजूसी नहीं करते लेकिन नए पौधों को लगाने भर से ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, फिर चाहे उसे पशु खा जाएं या गर्मी में सूख जाए. शहरों में कांक्रीटीकरण के चक्कर में कोई ऐसी जगह ही नहीं बचती जहां बरसात का पानी जमीन में समा सके.

रेन वाटर हार्वेस्टिंग जमीन पर कम, कागजों पर ज्यादा है. नतीजतन जरा भी ज्यादा बारिश हुई नहीं कि शहर जल-थल हो जाता है. वैसे जलसंकट ने कोई एक दिन या एक साल में इतना विकराल रूप नहीं लिया है. पिछले कुछ दशकों से यह साल-दर-साल बढ़ता रहा है, लेकिन पानी जब तक सिर के ऊपर से गुजरने न लगे, तक तक डूबने का डर कहां पैदा होता है? पर्यावरण के हिमायती, विशेषज्ञ तो जाने कब से चिल्ला-चिल्ला कर आगाह कर रहे हैं लेकिन एक तरफ तो हम पानी की कीमत नहीं समझ रहे हैं, दूसरी तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे हैं.

फ्रिज के बिना तो अब किसी घर की कल्पना भी नहीं की जा सकती; कूलर से भी काम नहीं चल पाता, एसी हमारी जरूरत बनती जा रही है, फिर भले ही उससे पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसें हमारे घर के बाहर की गर्मी को और बढ़ाएं! सड़कों की भीड़भाड़ में भले ही हमारे निजी वाहन रेंगते हुए चलें लेकिन सार्वजनिक परिवहन के साधनों का इस्तेमाल करना हमें असुविधाजनक लगता है! हम शायद भूल गए हैं कि प्रकृति की सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है और अब उसका धैर्य जवाब देने लगा है.

अभी तो सिर्फ गांव की बहुएं ही ससुराल छोड़कर जा रही हैं, कहीं ऐसा न हो कि पानी के अभाव में पूरे गांव के गांव ही पलायन करने के लिए मजबूर होने लगें! लेकिन पलायन करके जाएंगे भी कहां, कम-ज्यादा मात्रा में सभी को तो जलसंकट चपेट में ले रहा है. इसलिए अगर हम चाहते हैं कि बहुओं को पानी के अभाव में घर न छोड़ना पड़े, गांव-घर पानीदार बनी रहें तो पानी की फिजूलखर्ची रोकनी होगी और बरसात में उसे सहेजना भी होगा.

Web Title: Water can be saved only by preventing wasteful expenditure and saving it

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