विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: नागरिकों की भावनाओं को समझे सरकार
By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 16, 2020 07:20 AM2020-01-16T07:20:42+5:302020-01-16T07:20:42+5:30
पूर्व में असम समेत उत्तर-पूर्वी राज्यों में सांस्कृतिक पहचान पर आने वाले खतरे के नाम पर इसका विरोध हो रहा है तो पश्चिम में संविधान की रक्षा की दुहाई देकर सामान्य जन सड़कों पर हैं.
जिन्न बोतल से बाहर आ गया है. आया नहीं, निकाला गया है उसे बोतल से बाहर और अब वह समस्याएं खड़ी करने लगा है. यह सही है कि नागरिकता संशोधन कानून हमारी संसद में बहुमत से पारित हुआ है, पर सही यह भी है कि आज देशभर में अलग-अलग तरीकों से इस कानून का विरोध भी सामने आ रहा है.
पूर्व में असम समेत उत्तर-पूर्वी राज्यों में सांस्कृतिक पहचान पर आने वाले खतरे के नाम पर इसका विरोध हो रहा है तो पश्चिम में संविधान की रक्षा की दुहाई देकर सामान्य जन सड़कों पर हैं. कई संगठनों ने उच्चतम न्यायालय में इस कानून को चुनौती दी है और अब तो देश का एक राज्य-केरल-भी उनमें शामिल हो गया है, जो सुप्रीम कोर्ट में पहुंचे हैं. कई राज्यों की सरकारों ने इस कानून को पारित न किए जाने की घोषणा कर दी है और कई राज्यों में छात्रों-युवाओं के नेतृत्व में असंतोष सामने आ रहा है. देश के अनेक विश्वविद्यालयों में भले ही शुरुआती असंतोष किसी भी रूप में सामने आया हो, पर नागरिकता कानून से जुड़े सवाल भी बड़ी तेजी से इस असंतोष का हिस्सा बनते जा रहे हैं. दूसरी ओर, देश के अल्पसंख्यकों में एक भय लगातार फैलता जा रहा है और ‘जामिया की लड़कियां’ जिस तरह का विरोध कर रही हैं उसने जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई का रूप अपना लिया है. बनारस और प्रयागराज में भी इसी तरह की लड़ाई शुरू हो चुकी है.
भाजपा के नेतृत्व वाला सत्तारूढ़ पक्ष इस सबको देश-विरोधी ताकतों की खतरनाक कोशिश के रूप में देखना-दिखाना चाह रहा है. प्रधानमंत्री और गृह मंत्री समेत भाजपा के सारे छोटे-बड़े नेता तथाकथित राष्ट्र-विरोधी ताकतों के ‘षड्यंत्र’ को उजागर करने में लग गए हैं, पर स्थिति संभलने के बजाय और बिगड़ती दिख रही है.
नए-नए तर्क खोजे जा रहे हैं नागरिकता कानून के समर्थन में. नवीनतम तर्क प्रधानमंत्री ने कोलकाता की एक सभा में दिया है. उन्होंने कहा है कि इस कानून के कारण पड़ोसी देश (पाकिस्तान) में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों का सवाल दुनिया के सामने उभरकर आया है. सवाल उठता है कि पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध हमने यानी हमारी सरकार ने अब तक किया क्या था? क्या हम संयुक्त राष्ट्र में इस सवाल को सही ढंग से लेकर गए? सवाल यह भी उठता है कि पड़ोसी देशों के पीड़ित अल्पसंख्यकों को शरण देने की दिशा में हमने किया क्या? क्या यह तार्किक नहीं था कि भारत शरणार्थियों के संदर्भ में 1951 के यूएन कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करके शरण मांगने वाले पीड़ितों को पनाह देने पर सहमत हो जाता? इसके बदले हम एक कानून लेकर आ गए. इस कानून के अनुसार पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों (केवल हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी) को भारत शरण देगा. संसद में, और सड़कों पर भी, इस पर सवाल उठाए गए. पर बहुमत के निर्णय के नाम पर संसद ने कानून बना दिया. अब सड़कों पर इसका विरोध हो रहा है.
जिस गति और तीव्रता के साथ विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए इस कानून पर पुनर्विचार करने अथवा विरोधियों के मन के डर को कम करने की बात के संकेत सरकार दे सकती थी. जनतांत्रिक परंपराओं का भी यही तकाजा है. पर सरकार को संसद में अपना बहुमत ही जनतांत्रिक परंपरा लग रहा है. गलत है यह. विरोध की व्यापकता और विरोध में सामान्य नागरिक की भागीदारी को देखते हुए, उचित यही था, और है भी, कि सरकार इस संदर्भ में उठे संदेहों को दूर करने की कोशिश करती, पर मान लिया गया कि एनआरसी से इस कानून को अलग करने से देश के अल्पसंख्यकों का भय दूर हो जाएगा. यही नहीं, एनआरसी के बारे में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के परस्पर विरोधी बयानों ने स्थिति को और बिगाड़ा ही.
आश्चर्य की बात है कि इस बिगड़ती स्थिति की गंभीरता को सरकार या तो समझ नहीं रही या समझना नहीं चाहती. यह बात अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है, कहना चाहिए यह बात अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण है कि देश भर में अभिव्यक्त हो रहे असंतोष का नेतृत्व कोई राजनीतिक दल या राजनेता नहीं कर रहा. कहीं छात्र मोर्चा संभाले हुए हैं और कहीं महिलाएं. जन-जागृति का यही मतलब है. इसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए.
यह अनायास नहीं है कि आज सड़कों पर सिर्फ अल्पसंख्यक (पढ़िए मुसलमान) ही नहीं हैं. हवा में मुट्ठियां उछालने वालों में देश के हर समुदाय के लोग हैं. हर वर्ग के लोग हैं. भिन्न राजनीतिक सोच वाले लोग हैं. हां, यह भी सही है कि अल्पसंख्यकों के मन में असुरक्षा का भाव है, उनकी आंखों में संदेह दिख रहा है. देश का एक बड़ा वर्ग यदि अविश्वास और संदेह के साथ जीता है तो यह असामान्य ही नहीं खतरनाक भी है. इस स्थिति का बदलना जरूरी है. और इस बदलाव की जिम्मेदारी उनपर ज्यादा है, जिन के हाथ में जनता ने सत्ता सौंपी है.
आवश्यकता हर नागरिक को यह अहसास दिलाने की है कि ‘समाजवादी, गणतांत्रिक, पंथ-निरपेक्ष’ भारत में उसका अधिकार किसी दूसरे के अधिकार से कम नहीं है. हर नागरिक को इस बात का आश्वासन मिलना चाहिए कि उसे प्रगति का समान अवसर मिलेगा, उसके साथ किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं होगा, उसे किसी भी आधार पर कमतर नहीं आंका जाएगा. यह तभी हो सकता है जब संविधान की शपथ खाने वाले संविधान को अपने आचरण में उतारें. इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि सत्ता नागरिक के प्रति अपनी जवाबदेही को भी सही अर्थों, सही संदर्भों में समझे. विश्वविद्यालयों का युवा और सड़कों पर उतरा देश का नागरिक यह भी अपेक्षा कर रहा है कि जिन्हें उसने अपना प्रतिनिधि चुना है वे उसके शासक न बनें, उसकी भावनाओं को समझे. कब होगी पूरी नागरिक की अपेक्षा?