विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः राजनीति में लुप्त हो रहे हैं नीति और सिद्धांत 

By विश्वनाथ सचदेव | Published: July 11, 2019 07:09 AM2019-07-11T07:09:40+5:302019-07-11T07:09:40+5:30

एक तरफ कांग्रेस पार्टी के नेता अपने अध्यक्ष के इस्तीफे के बाद कतार में खड़े होकर चुनावों में हार के दायित्व को स्वीकारते हुए इस्तीफे दे रहे हैं और दूसरी ओर कर्नाटक में जो नाटक चल रहा है, उसमें हमने कांग्रेसी विधायकों को राज्य में अपनी ही पार्टी की सरकार को हराने के लिए इस्तीफे देते देखा.

Vishwanath Sachdev's blog: Politics and principles are disappearing in politics | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः राजनीति में लुप्त हो रहे हैं नीति और सिद्धांत 

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः राजनीति में लुप्त हो रहे हैं नीति और सिद्धांत 

पिछले कुछ दिन से देश की राजनीति में इस्तीफों का मौसम-सा आया हुआ है. एक तरफ कांग्रेस पार्टी के नेता अपने अध्यक्ष के इस्तीफे के बाद कतार में खड़े होकर चुनावों में हार के दायित्व को स्वीकारते हुए इस्तीफे दे रहे हैं और दूसरी ओर कर्नाटक में जो नाटक चल रहा है, उसमें हमने कांग्रेसी विधायकों को राज्य में अपनी ही पार्टी की सरकार को हराने के लिए इस्तीफे देते देखा. यह शब्द लिखने तक चर्चा यह भी है कि कर्नाटक में इस्तीफे देने वाले विधायक भाजपा में शामिल होंगे. कौन-सा राजनेता किस राजनीतिक दल में शामिल होता है, यह उसका अपना निर्णय है. 

दल-विशेष से इस्तीफा देने की भी उसे पूरी स्वतंत्रता है. पर पार्टी छोड़ने और किसी पार्टी में शामिल होने के हमारे राजनेताओं के अधिकार पर सवाल भी अक्सर उठते रहे हैं. खास तौर पर चुनाव में किसी पार्टी की ओर से उम्मीदवार बना, और चुनाव-जीतने वाला राजनेता जब अपनी पार्टी छोड़ता है तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्यों किया उसने ऐसा? और अक्सर इस क्यों का उत्तर, दुर्भाग्य से, राजनीतिक स्वार्थ-सिद्धि ही होता है. 

यह माना जाता है कि राजनीतिक पार्टियां कुछ नीतियों, मूल्यों और सिद्धांतों पर आधारित होती हैं. ये नीतियां, मूल्य और सिद्धांत घोषित होते हैं. इन्हीं से प्रभावित होकर व्यक्ति किसी पार्टी में शामिल होता है. मतदाता भी जब किसी उम्मीदवार को वोट देता है तो उसके पीछे बड़ा कारण उसके दल-विशेष की घोषित नीतियां भी होती हैं. ऐसे में, सवाल उठता है कि जब कोई पार्षद या विधायक या सांसद एक दल को छोड़कर दूसरे दल में शामिल होता है तो क्या उसे अपने मतदाता से नहीं पूछना चाहिए? 

    यह या ऐसा सवाल देश में कई बार उठा है. इसीलिए दल-बदल को लेकर कुछ नियम भी बनाए गए हैं. लेकिन इन नियमों से कुछ विशेष अंतर नहीं पड़ा. अपने स्वार्थों के लिए हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि बड़े धड़ल्ले से, और बड़ी बेशर्मी से दल-बदल करते रहे हैं. न उन्हें ऐसा करते हुए कोई हिचक होती है और न ही ऐसा कराते हुए राजनीतिक दलों को कई संकोच होता है. मजे की बात तो यह है कि कोई राजनीतिक दल कल तक जिस व्यक्ति पर गंभीर आरोप लगा रहा होता है, आज उसके पाला बदलने पर बाहें फैलाकर उसका स्वागत करता है. हर राजनीतिक दल अपने आप को गंगा का पवित्र जल समझता है, जिसकी कुछ बूंदें छिड़कने मात्र से ही पापी के पाप धुल जाते हैं! 

शायद सत्ता की राजनीति का ही दोष है कि सिद्धांतों और मूल्यों की राजनीति के लिए हमारी राजनीतिक व्यवस्था में कोई जगह नहीं बची. हो सकता है ये शब्द आप तक पहुंचने तक कर्नाटक में दल-बदल का यह तमाशा किसी परिणाम तक पहुंच गया हो. हो सकता है दल-बदलुओं को अपना-अपना लक्ष्य मिल गया हो. पर जनतंत्र में इस तरह के तमाशों की स्वीकार्यता को लेकर उठा सवाल हमसे उत्तर की अपेक्षा करता ही रहेगा. क्या हमारी राजनीति में सिद्धांतों के लिए सचमुच कोई जगह नहीं बची? इस सिद्धांतहीन राजनीति के बहुत-से किस्से सुने हैं हमने, देखे भी हैं. पता ही नहीं चलता कब कोई राजनेता अपनी टोपी बदल लेता है. अचानक उसकी निष्ठा बदल जाती है. नारे बदल जाते हैं. भाषा बदल जाती है. हमने दल-बदल की कृपा से रातों-रात सरकारें बदलती देखी हैं. हरियाणा में कभी हुआ था- पूरे के पूरे मंत्रिमंडल ने एक ही झटके में दल-बदल कर लिया था?

सवाल यह भी उठता है कि क्या जनप्रतिनिधि को दलबदल करने से पहले अपने मतदाता से पूछना नहीं चाहिए. मगर वह पूछे कैसे? इसका सीधा-सा उत्तर यह है कि दल-बदल का इच्छुक राजनेता जब अपने दल से त्यागपत्र दे तो विधानसभा या संसद से भी विदा ले ले. अपनी नई पहचान के साथ फिर से मतदाता के सामने जाए. समर्थन मांगे. जीते. पर हमारे राजनेता और राजनीतिक दल मतदाता को इतना महत्वपूर्ण मानते ही कब हैं? 

हां, जब वोट लेना होता है तो जरूर मतदाता की जय-जयकार होती है. उसे बहलाने-फुसलाने या समझाने के लिए कहा जाता है कि जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है. पर चुनाव जीतने के बाद तो स्वयं को सेवक घोषित करने वाला राजनेता जैसे राजा बन जाता है. ब्रिटेन वाले कहते हैं, राजा कभी गलती नहीं करता. हमारे प्रतिनिधि भी यह मानने लगे हैं. वे तो यह मानते हैं कि उनसे गलती हो ही नहीं सकती. दल-बदल करना उनके लिए एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने जैसा हो गया है! यह मानसिकता किसी भी रूप में जनतांत्रिक नहीं है. 

दलबदल की इस शर्मनाक प्रवृत्ति को रोकने के लिए संसद में कुछ कानून बनाकर इस पर अंकुश लगाने की कोशिश की गई. पर यह कानून संख्या-विशेष के आधार पर दल-बदल का औचित्य निर्धारित करता है. यह बीमार पेड़ की पत्तियों पर दवा छिड़कने जैसी बात है. बीमारी जड़ में है. दवा की जरूरत जड़ को है. कोई रास्ता तो निकालना ही होगा कि हमारे निर्वाचित राजनेता जनतंत्र की मयार्दाओं को समझें. उन्हें यह अहसास होना ही चाहिए कि जिस मतदाता ने उन्हें चुना है, उसका भी कुछ अधिकार है. 

यह हमारी संसद को तय करना है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों को यह अहसास कैसे कराया जाए. जनतंत्र की सार्थकता के लिए जरूरी है यह कि कोई ऐसी व्यवस्था बने जिसमें अपने स्वार्थ के लिए दल-बदल करने वाले को थोड़ी शर्म आए. थोड़ी क्यों, पूरी शर्म आनी चाहिए ऐसा करने वालों को.

Web Title: Vishwanath Sachdev's blog: Politics and principles are disappearing in politics

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