विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः परिस्थितियों को बदलने में विफल रहा समा

By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 24, 2019 09:00 PM2019-01-24T21:00:51+5:302019-01-24T21:00:51+5:30

बहुत आलोचना हुई थी मंटो की इस बात को लिए कि उन्होंने सच को नंगा करके समाज के सामने रख दिया. नंगापन अच्छा नहीं लगता, यह सच है.पर सच यह भी है कि सोच के नंगेपन को देखे-समङो बगैर नंगेपन की भीषणता और भयावहता को भी नहीं समझा जा सकता.

Vishwanath Sachdev's blog: failed to change the circumstances | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉगः परिस्थितियों को बदलने में विफल रहा समा

फाइल फोटो

पिछले दिनों मुंबई समेत देश के कुछ अन्य शहरों में मंटो को फिर से याद किया गया. प्रसंग उनकी पुण्यतिथि का था. चौसठ साल हो गए हैं मंटो को हमारे बीच से गए हुए-और इतने ही साल से मंटो अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे बीच बने हुए हैं. सच तो यह है कि कोई भी महान लेखक कभी कहीं जाता नहीं, उसका लेखन उसकी प्रासंगिकता को बनाए रखता है. सत्तर-अस्सी साल पहले मंटो ने अपने समय के समाज और उसकी सोच को हमारे सामने रखा था. वह सच तब भी झकझोरने वाला था और आज भी झकझोरता है. बहुत ईल लगा था तब मंटो का लेखन तब के उन लोगों को जो स्वयं को समाज की नैतिकता का पहरेदार समझते थे. 

बहुत आलोचना हुई थी मंटो की इस बात को लिए कि उन्होंने सच को नंगा करके समाज के सामने रख दिया. नंगापन अच्छा नहीं लगता, यह सच है.पर सच यह भी है कि सोच के नंगेपन को देखे-समङो बगैर नंगेपन की भीषणता और भयावहता को भी नहीं समझा जा सकता. मंटो ने हमें यही सच दिखाया था. यही सच समझाने की कोशिश की थी उन्होंने. हर सच्चा और अच्छा साहित्यकार यही करता है. यही दर्पण दिखाने का काम है साहित्य का. किसी शायर ने लिखा था-हम तो आईना हैं दिखाएंगे दाग चेहरे के/जिसे बुरा लगता हो सामने से हट जाए/पर मंटो का लेखन तो ऐसा आईना है जो सामने से हटने भी नहीं देता! 

यही पहचान है अच्छे लेखन की और यही लेखन को प्रासंगिक भी बनाती है. पर सवाल उठता है कि सत्तर-अस्सी साल पहले का सच यदि आज भी प्रासंगिक है तो यह क्या संकेत देता है? दो स्पष्ट संकेत हैं  इस बात के-पहला तो यह कि वह लेखन सच्चा है और दूसरा यह कि हम यानी समाज विफल रहे हैं उन स्थितियों के बदलने में जो लेखक दर्पण दिखाकर बदलवाने की उम्मीद कर रहा था. 

मंटो की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में मुंबई में जो कार्यक्रम हुआ था ‘मंटो की मुंबई, उसके निर्देशक जमील गुलरेज ने इस संदर्भ में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है, ‘मंटो जितने प्रासंगिक साठ-सत्तर साल पहले थे उतने ही आज हैं. यह खुश होने की बात कतई नहीं है, क्योंकि अगर वे प्रासंगिक हैं तो यह हमारी विफलता है कि हम तब से लेकर अब तक अपने देश-समाज को बदल नहीं सके. 

प्रासंगिकता कालजयी लेखन की पहचान और विशेषता हो सकती है, पर यह सचमुच पीड़ाजनक सचाई है कि इस प्रासंगिकता का मतलब हमारा न बदलना ही है.

मंटो यदि आज जिंदा हो जाते हैं तो क्या देखेंगे? यही न कि उनकी मुंबई की इमारतें पहले से ऊंची हो गई हैं, सड़कों पर भीड़ बढ़ गई है. वे यह भी देखेंगे कि आदमी की सोच अब भी वैसी ही है-अब भी मजहब के नाम पर दंगे हो जाते हैं; हिंसा और वासना अब भी हावी है आदमी पर; टोबा टेक सिंह का बिशनसिंह अब भी पूछ रहा है वह कहां जाए? सवाल यह नहीं है कि टोबा टेकसिंह किस देश का हिस्सा है, सवाल यह है कि बिशन सिंह कहां जाए? और क्यों जाए कहीं?

सवाल चाहे धर्म के नाम पर दंगों का हो या फिर मानवीय भावनाओं के मरने का, रेखांकित यही होता है हम अपने इतिहास से कुछ सीखना नहीं चाह रहे. मंटो के लेखन का आज भी प्रासंगिक होना कुल मिलाकर हमारी विफलता ही है. 

मंटो या प्रेमचंद या भीष्म साहनी या प्रसाद या निराला या.. किसी भी महान साहित्यकार का आज भी प्रासंगिक होना यही बताता है कि हम कुछ नहीं समझे, हम कुछ नहीं समझना चाहते. आजादी पाने के पहले भी सांप्रदायिक दंगे होते थे देश में, सत्ता की राजनीति के खलनायक तब भी धर्म के नाम पर समाज को बांटा करते थे. देश के बंटवारे के बाद हमने कितनी बार इस तरह समाज को बंटते नहीं देखा? सांप्रदायिकता तब भी खलनायकों का हथियार थी, आज भी है. सामाजिक विषमता का मंजर आज भी दिख जाता है.

आर्थिक विषमता आज भी एक भयावह सचाई है. धर्म 
और जाति के नाम पर आज भी हमें भड़काया जा सकता है. फर्क  सिर्फ इतना पड़ा है कि तब मंदिर या मस्जिद में गाय या सूअर के मांस का टुकड़ा फेंक कर दंगे भड़काए जाते थे, आज यह काम सोशल मीडिया पर वायरल हुए संदेश कर देते हैं. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में जो कुछ हुआ या फिर गोधरा-कांड के बाद गुजरात में हिंसा का जो तांडव हुआ, वह सिर्फ यही बताता है कि सारे दावों और वादों के बावजूद हमारे भीतर का जानवर अभी मरा नहीं. अपने आप नहीं मरा करता आदमी के भीतर उगे जंगलों का यह जानवर. उसे सोच-समझकर मारना पड़ता है. 

महान रचनाकारों की प्रासंगिकता उनकी विशेषता हो सकती है, पर उनका प्रासंगिक बने रहना एक ऐसी सचाई है जिस पर किसी भी विवेकशील समाज को शर्म आनी चाहिए. साहित्य चेहरों के दाग दिखाता है, प्रेरणा भी देता है उन दागों को मिटाने की, पर दाग मिटाने का काम तो जागरूक समाज को ही करना होता है. अपने महान रचनाकारों के लेखन से बार-बार गुजरना, उसे समझने की कोशिश करना ही किसी टोबा टेकसिंह की त्रसदी की पीड़ा से उबरना है.
(जाने-माने स्तंभकार)

Web Title: Vishwanath Sachdev's blog: failed to change the circumstances

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