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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: डर पैदा करने वाले कारणों को दूर करना जरूरी

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: July 18, 2019 04:07 IST

गृह मंत्री के वक्तव्य पर सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि वे डराएं नहीं तो गृह मंत्री ने कहा, ‘वे डरा नहीं रहे, पर यदि डर आपके जेहन में है तो क्या किया जा सकता है?’ निश्चित रूप से गृह मंत्री का मकसद डराना नहीं होगा, पर यह बात भी समझनी जरूरी है कि यदि किसी नागरिक के मन में डर है तो क्यों है?

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फिरोज अशरफ एक समाज-सुधारक थे. मुस्लिम समाज में शिक्षा की कमी से परेशान अशरफ यह मानते थे कि हिंदुस्तान में मुसलमान किसी के रहमोकरम पर नहीं जी सकते. वे भी इस देश के नागरिक हैं, उनके अधिकार और कर्तव्य भी वही हैं जो देश में किसी और नागरिक के हैं. पिछले दिनों मुंबई में एक सड़क दुर्घटना में फिरोज अशरफ का दुखद निधन हो गया. उनके चालीसे पर एकत्र हुए उनके परिजनों और प्रशंसकों ने इस अवसर पर इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी समझा था कि इस प्रगतिशील मुसलमान को सन 93 के मुंबई  के दंगों में डरकर एक मुस्लिम बस्ती में शरण लेनी पड़ी थी. पहले वे मलाड में रहा करते थे. दंगों के दौरान मुहल्ले के हिंदुओं ने फिरोज के परिवार को पूरी सुरक्षा दी थी, पर साथ ही यह भी कहा था कि हो सकता है कल वे सुरक्षा न दे पाएं, इसलिए फिरोज अशरफ को किसी सुरक्षित जगह चले जाना चाहिए- और फिरोज मलाड वाला घर छोड़कर जोगेश्वरी के मुस्लिम-बहुल इलाके में बसने के लिए मजबूर हो गए थे.

बरसों पहले जब स्वयं फिरोज ने यह बात बताई थी, तो उनकी आंखों में आंसू थे. फिरोज डरपोक नहीं थे, पर हालात ने उन्हें जरूर डरा दिया होगा. 

यह बात मुझे लोकसभा में गृह मंत्री का बयान सुनकर याद आई. राष्ट्रीय जांच एजेंसी संशोधन विधेयक पर बहस के दौरान जब गृह मंत्री के वक्तव्य पर सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि वे डराएं नहीं तो गृह मंत्री ने कहा, ‘वे डरा नहीं रहे, पर यदि डर आपके जेहन में है तो क्या किया जा सकता है?’ निश्चित रूप से गृह मंत्री का मकसद डराना नहीं होगा, पर यह बात भी समझनी जरूरी है कि यदि किसी नागरिक के मन में डर है तो क्यों है? कोई डराना नहीं चाहता, पर कभी-कभी स्थितियां डरा देती हैं-  जैसे फिरोज अशरफ को डर कर मलाड छोड़ना पड़ा था. इसका इलाज यही है कि डर पैदा करने वाली स्थितियों को बदला जाए, डरने वाले को यह अहसास कराया जाए कि उसका डर बेमानी है.

अक्सर बच्चों को अंधेरे में डर लगता है. ऐसे में मां-बाप उंगली पकड़ कर बच्चे को अंधेरे में ले जाकर समझाते हैं कि डरने जैसी कोई बात नहीं है. यह मां-बाप का कर्तव्य बनता है. यही कर्तव्य नागरिकों के प्रति सरकार का होता है. स्थितियों के कारण डरने वाले किसी नागरिक को सरकार यह नहीं कह सकती कि तुम्हारे जेहन में डर है, इसका कुछ नहीं किया जा सकता.  कुछ तो करना ही होगा. डर पैदा करने वाली स्थितियां किसी भी व्यवस्था या समाज के लिए एक चुनौती होती हैं. इस चुनौती का मुकाबला करना पड़ता है, उससे आंख चुराने से बात नहीं बनेगी.

मैं यह नहीं मानता कि देश की चौदह प्रतिशत आबादी वाले मुसलमान डरे हुए हैं. पर स्थितियां कुछ ऐसी अवश्य हैं कि किसी के मन में डर पैदा हो सकता है. अब मॉब लिंचिंग का ही उदाहरण लें. देश के अलग-अलग हिस्सों में आए दिन किसी को पीट-पीटकर मार देने की घटनाएं घट रही हैं. कभी गौ-वंश की हत्या के नाम पर किसी को सजा  देना कोई अपना कर्तव्य और अधिकार समझ लेता है, कभी जय श्री राम का नारा न लगाने पर कोई अपराधी मान लिया जाता है, कभी जय हनुमान कहने के बाद भी कोई इतना पीटा जाता है कि उसकी मौत हो जाती है.

यह सब बातें किसी के मन में भी डर पैदा कर सकती हैं. ‘इसका कुछ नहीं किया जा सकता’  कहना समस्या का समाधान नहीं है. देश के हर नागरिक की सुरक्षा सरकार का दायित्व है. धर्म, जाति या भाषा या क्षेत्रीयता के नाम पर किसी को भी डराए जाने का मतलब, या किसी के भी डरने का मतलब यही है कि देश और समाज में समरसता के लिए कहीं न कहीं खतरा पैदा किया जा रहा है. सवाल यही नहीं है कि इसके लिए दोषी कौन है, सवाल यह भी है कि इस खतरे का मुकाबला कैसे किया जाए? 

हमने अपने संविधान में एक धर्म-निरपेक्ष देश की परिकल्पना को साकार किया है. अपने धार्मिक विश्वास के प्रति मोह या दृढ़ता कतई गलत नहीं है, पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि दूसरे के विश्वास और आस्था के प्रति हम नफरत या उपेक्षा का भाव रखें. अपने से अलग धर्म के प्रति आदर ही व्यक्ति को सही अर्थों में धार्मिक बनाता है. गांधीजी ने सर्वधर्म समभाव को अपनी प्रार्थना का हिस्सा बनाया था.

बहरहाल, ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ का प्रधानमंत्री का नारा तबतक बेमानी रहेगा जबतक हर नागरिक को यह अहसास न हो कि देश और समाज उसे बराबरी की निगाह से देखता है. यह तभी संभव है जब देश और समाज का नेतृत्व ईमानदारी से यह कोशिश करता दिखाई दे कि उसकी दृष्टि में धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है. सबका विश्वास अर्जित करने की ईमानदार कोशिश झलकनी चाहिए हमारे नेतृत्व के कृतित्व में. यह विश्वास तभी पनपेगा जब हर नागरिक स्वयं को भय-मुक्त समझेगा. इसलिए गृह मंत्री का यह कहना कि किसी के जेहन में डर का कोई इलाज नहीं है वस्तुत: डर पैदा करने वाली बात लगती है. 

कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने भय-मुक्त भारत की कल्पना की थी. उस कल्पना को साकार करने के लिए जरूरी हैं ऐसी स्थितियां जिनमें नागरिक चाहे, वह किसी भी धर्म का हो, स्वयं को सुरक्षित महसूस करे.

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