विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: कालजयी कविताओं का संकीर्ण अर्थ न लगाएं

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: January 11, 2020 07:34 IST2020-01-11T07:34:35+5:302020-01-11T07:34:35+5:30

आईआईटी कानपुर के छात्र और फिर जामिया मिलिया, दिल्ली के छात्र-छात्रएं तानाशाही रवैये के विरोध के इसी प्रतीक के माध्यम से अपनी बात उजागर कर रहे थे. असल में, फैज ने कुछ धार्मिक प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही है. दुनिया जानती है कि फैज नास्तिक थे और धर्म-निपरेक्षता के झंडाबरदार भी. पर कविता में आए काबा, बुत, अल्लाह जैसे शब्द इन तत्वों को हिंदू-विरोधी लग रहे हैं.

Vishwanath Sachdev blog: Do not make narrow meanings of Classical poems | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: कालजयी कविताओं का संकीर्ण अर्थ न लगाएं

फैज अहमद फैज की फाइल फोटो। (Image Source: Facebook/@Faiz.Ahmad.Faiz.Poet)

पिछली सदी के सातवें दशक के आखिर की बात है या आठवें दशक के शुरुआती दिनों की. पाकिस्तान और हिंदुस्तान के साझा शायर फैज अहमद फैज मुंबई आए थे एक मुशायरे में भाग लेने के लिए. फैज साहब को सुनने के लिए हम कुछ दोस्त मुंबई के रंगभवन में पहुंचे थे. देर रात तक चला था मुशायरा. इतनी देर तक कि चर्चगेट स्टेशन से रात की आखिरी लोकल गाड़ी भी जा चुकी थी, और फिर वह रात हमने समुद्र-किनारे मरीन ड्राइव पर फैज साहब की पंक्तियां गुनगुनाते हुए गुजारी थी.

आज उनकी ‘हम देखेंगे’ शीर्षक वाली कविता विवादों के केंद्र में है. आईआईटी, कानपुर के कुछ छात्रों ने ‘नागरिकता कानून’ के संदर्भ में चल रहे प्रदर्शन में इस प्रसिद्ध कविता के माध्यम से अपनी भावनाएं व्यक्त करनी चाही थीं. संस्थान के कुछ लोगों को पाकिस्तान में तानाशाही के खिलाफ लिखी इस कविता में ‘हिंदू-विरोध’ की गंध आ गई और एक समिति बिठा दी गई इस विश्व-प्रसिद्ध कविता के औचित्य पर निर्णय देने के लिए.  

पाकिस्तानी तानाशाह जनरल जिया उल हक ने फैज को उनके विचारों के लिए जेल में डाल दिया था. जेल में ही फैज ने लिखा था ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे, वो दिन जिसका वादा है/ जो लौह-ए-अजल में लिक्खा है/ जब जुल्मों-सितम के कोहे गिरां/रूई की तरह उड़ जाएंगे..’ यह कविता पाकिस्तान के तानाशाह को कैसे पसंद आती. इसको प्रतिबंधित कर दिया गया था. 1979 में लिखी गई यह कविता 1986 में दुनिया के सामने आई थी. 10 फरवरी का दिन था. फैज अहमद फैज का जन्मदिन मनाया था उनके प्रशंसकों ने. ‘फैज मेला’ कहा गया था इसे. लाहौर के आर्ट काउंसिल में लगा था यह मेला. पाकिस्तान की प्रसिद्ध गायिका इकबाल बानो जब मंच पर आईं तो उन्होंने काली साड़ी पहन रखी थी. और जब इकबाल बानो की आवाज गूंजी ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे..’ तो सभा में तालियों की गड़गड़ाहट थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

आईआईटी कानपुर के छात्र और फिर जामिया मिलिया, दिल्ली के छात्र-छात्रएं तानाशाही रवैये के विरोध के इसी प्रतीक के माध्यम से अपनी बात उजागर कर रहे थे. असल में, फैज ने कुछ धार्मिक प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही है. दुनिया जानती है कि फैज नास्तिक थे और धर्म-निपरेक्षता के झंडाबरदार भी. पर कविता में आए काबा, बुत, अल्लाह जैसे शब्द इन तत्वों को हिंदू-विरोधी लग रहे हैं. कविता में कहा गया है, ‘जब अर्ज-ए-खुदा के काबे से/सब बुत उठवाये जाएंगे/हम अहले-सफा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाये जाएंगे/ सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराये जाएंगे/ बस नाम रहेगा अल्लाह का/ हम देखेंगे.’ मतलब साफ है, ‘जब खुदा के घर से झूठ के बुत उठाए जाएंगे, जब पवित्र स्थानों से हटाए गए हम जैसे लोगों को ऊंचे आसनों पर बिठाया जाएगा, जब ताज-तख्त मिट जाएंगे, सिर्फ ईश्वर का नाम रहेगा, हम देखेंगे.’

इसमें हिंदू-विरोध कहां से आ गया. बुतों का मतलब मंदिर की मूर्तियां कैसे हो गया? कविता प्रतीकों से समझी-समझाई जाती है.  फैज अहमद फैज जैसे कवि को शब्दों के आधार पर समझने की कोशिश वस्तुत: उन्हें गलत समझने की जिद ही है.

Web Title: Vishwanath Sachdev blog: Do not make narrow meanings of Classical poems

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