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विजय दर्डा का ब्लॉग: शब्द ब्रह्म है... तो असंसदीय कैसे...?

By विजय दर्डा | Updated: July 18, 2022 07:57 IST

हमारी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में शब्द को ब्रह्मा माना गया है तो सवाल है कि कोई शब्द असंसदीय कैसे हो सकता है? लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि शब्दों को ही कठघरे में खड़ा किया जा रहा है जबकि असली सवाल तो सांसदों के आचरण का है. यदि बातों में वजन है, मुद्दों में सार्थकता है तो कठोर शब्दों की बिल्कुल ही जरूरत नहीं पड़ेगी.

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संसदीय शब्दों की सूची वैसे तो हर साल ही जारी होती है लेकिन इस बार जो नई सूची सामने आई है, उसे लेकर हंगामा बरपा हुआ है. विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों ने तीव्र प्रतिक्रिया जाहिर की है और कहा है कि यह विपक्ष की आवाज को दबाने की कोशिश है. शब्दों पर इस तरह का अंकुश लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. जिंदगी में हर रोज उपयोग में आने वाले शब्द आखिर कैसे असंसदीय हो सकते हैं?

जरा इस बात पर नजर डालिए कि तानाशाह, जुमलाजीवी, जयचंद, अंट-शंट, करप्ट, नौटंकी, ढिंढोरा पीटना, निकम्मा, बाल बुद्धि, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, उचक्के, अहंकार, कांव-कांव करना, काला दिन, गुंडागर्दी, गुलछर्रा, गुल खिलाना जैसे शब्द भले ही आम बोलचाल की भाषा में शामिल हैं लेकिन इन्हें संसद में बोला गया तो उसे रिकार्ड से हटा दिया जाएगा. 

विपक्ष का कहना है कि जानबूझ कर ऐसे शब्दों को हटाया गया है जिनका उपयोग सरकार के लिए कई बार किया जाता है. मसलन तानाशाह, दादागीरी और दंगा जैसे शब्द भी अब असंसदीय हो गए हैं. जरा सोचिए कि यदि कहीं दंगा हुआ है और उस पर सदन में चर्चा हो रही है तो दंगा शब्द के उपयोग से कैसे बचा जा सकता है? शब्दों को असंसदीय बता देने की यह परंपरा ठीक नहीं है.

मैं पूरे अठारह वर्षों तक संसदीय राजनीति का हिस्सा रहा हूं. पत्रकार भी हूं इसलिए शब्दों की सार्थकता को बहुत करीब से मैंने समझने और जानने की कोशिश की है. शब्दों के संसदीय होने या न होने का मसला केवल हिंदुस्तान में ही नहीं है बल्कि दुनिया के कई देशों की संसद में कई शब्दों के उपयोग पर समय-समय पर प्रतिबंध रहा है. भारत में भी 1954 से ऐसी सूची तैयार होनी शुरू हुई जिसे किसी संदर्भ में असंसदीय मानकर अध्यक्ष या सभापति ने हटा दिया. फिर राज्यों की विधानसभाओं में भी यह प्रक्रिया शुरू हुई और उसके बाद हर साल नई सूची बनती है. इस साल की सूची पर सबसे ज्यादा विवाद खड़ा हुआ है.

निजी तौर पर मेरा मानना है शब्द ब्रह्म है. यही मान्यता हमारी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा की भी है. शब्द तो भावों को प्रकट करने का माध्यम है. गाली-गलौज की बात छोड़ दें तो सामान्य रूप से कोई शब्द असंसदीय हो ही नहीं सकता. हां, शब्द कठोर जरूर होते हैं. उनकी मारक क्षमता सबसे ज्यादा होती है. एक छोटा सा शब्द भी रिश्तों को तार-तार कर सकता है. इसीलिए कहावत है कि कमान से छूटा तीर और जुबान से छूटे शब्द लौटकर वापस नहीं आते. कहने का आशय यह है कि निजी जीवन हो, सामाजिक जीवन हो या फिर संसद हो, शब्दों का उपयोग बहुत सोच-समझकर करना चाहिए. कठोर शब्दों ने ही महाभारत करा दिया और कठोर शब्दों के कारण ही रावण की लंका जल गई!

मैं अपने निजी अनुभव के आधार पर यह दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि आपकी बात में दम है, जो मुद्दा आप उठा रहे हैं, उसके पीछे सधा हुआ तर्क है, वजन है तो किसी को ठेस पहुंचाने वाले कठोर शब्दों के उपयोग की जरूरत ही नहीं पड़ती है. मैंने अपने इस कॉलम में पहले भी इस बात का जिक्र किया है कि हेम बरुआ ने एक बार आवेश में आकर नेहरूजी को गाली दे दी थी. इसके बावजूद नेहरूजी ने उन्हें चाय पर बुलाया था और कहा था कि अच्छा बोलते हैं लेकिन गुस्सा हो जाते हैं. 

फिरोज गांधी भी जबर्दस्त प्रहार करते थे लेकिन शब्द संयमित होते थे. आपसी रिश्ते बने रहते थे. मैंने बिगड़ते हालात को देखा है. कुछ शब्द बिल्कुल संसदीय हैं मसलन भाजपा, कांग्रेस, लालूजी, ममता दीदी, जयललिता, करुणानिधि लेकिन ये नाम लेते ही इनके विरोधी तूफान मचा देते थे और आज भी तूफान खड़ा करने से पीछे नहीं हटते.

आप इस बात पर ध्यान दीजिए कि आज सुप्रीम कोर्ट में कितनी तीव्र बहस होती है लेकिन क्या कभी असंसदीय शब्द का सवाल खड़ा होता है? नहीं होता है क्योंकि वहां आचरण का ध्यान रखा जाता है. मेरा मानना है कि निश्चय ही विपक्ष के प्रति सहज भाव रखना सरकार का दायित्व है तो विपक्षी सांसदों का भी यह दायित्व है कि वे अपना संसदीय आचरण ऐसा रखें कि लोग उनसे प्रेरणा ले सकें. आज के युवा अपने सांसदों और विधायकों के आचरण पर ध्यान रखते हैं. 

संसद हमारा लोकतांत्रिक आराधना स्थल है. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि वहां सांसदों का आचरण ठीक वैसा ही हो जैसा आचरण वे अपने आराध्य के प्रति रखते हैं. यदि सांसदों का आचरण संस्कृति से परिपूर्ण हो जाए तो किसी शब्द को असंसदीय होने की तोहमत नहीं झेलनी होगी.

चलते-चलते संसदीय शब्दों को लेकर एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा मैं आपको बातता हूं. 1956 में गोडसे शब्द को असंसदीय शब्दों की सूची में डाल दिया गया. 2015 में राज्यसभा के तत्कालीन उपसभापति पीजे कुरियन ने एक सदस्य को ‘गोडसे’ शब्द बोलने से रोका तो शिवसेना के तत्कालीन सांसद हेमंत तुकाराम गोडसे ने इसे मुद्दा बना लिया. 

उन्होंने लोकसभा की उस वक्त की स्पीकर सुमित्रा महाजन को पत्र लिखा कि गोडसे तो मेरा उपनाम है. मैं अपने नाम से यह शब्द क्यों हटाऊंगा. बात तो वाजिब थी इसलिए स्पीकर ने गोडसे शब्द को असंसदीय शब्दों की सूची से हटाया और नई व्यवस्था दी कि केवल पूरा नाम ‘नाथूराम गोडसे’ ही प्रतिबंधित माना जाएगा.

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