विजय दर्डा का ब्लॉग: सत्ता में रहने वालों के हजार हाथ, जो दिखते नहीं..!
By विजय दर्डा | Published: November 15, 2020 05:17 PM2020-11-15T17:17:52+5:302020-11-15T17:19:13+5:30
डोनाल्ड ट्रम्प कोरोना महामारी से लड़ नहीं पाए तो अमेरिकी जनता ने उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया. लग रहा था कि बिहार में भी नीतीश को जनता लौटने का मौका नहीं देगी लेकिन सारे अनुमान धरे के धरे रह गए! क्योंकि सत्ता तो आखिर सत्ता होती है! उसके हजार हाथ होते हैं जो दिखाई नहीं देते.
एक बड़ी पुरानी कहावत है कि सत्ता के हजार हाथ होते हैं जो दिखाई नहीं देते. सत्ता के चमत्कार नजर भी नहीं आते! बिहार चुनाव के परिणाम इस कहावत को सही साबित करते नजर आते हैं. आखिर ऐसा क्या था कि नीतीश कुमार फिर से सत्ता में लौट कर आ जाएं? हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं था. दिल्ली, मुंबई, गुजरात और राजस्थान से पैदल अपने गांव पहुंचे मजदूरों की व्यथा चुनाव में भारी पड़नी चाहिए थी. बेरोजगारी का मुद्दा चलना चाहिए था लेकिन सारे मुद्दे कहीं कोने में क्यों दुबक गए? नीतीश कुमार का सातवीं बार मुख्यमंत्री बनना एक ‘चमत्कार’ जैसा लग रहा है!
यह सभी जानते हैं कि सरकार में होने के अपने अपरंपार फायदे होते हैं और जब दिल्ली की सत्ता भी साथ में हो तो सोने पर सुहागा वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है. किसी चीज की कमी नहीं रह जाती है. नीतीश कुमार को एनडीए ने मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा बनाया था तो जाहिर तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर केंद्र के दर्जनों मंत्री चुनाव में पूरी ताकत से उतरे हुए थे और संसाधनों की तो कोई कमी थी ही नहीं. इसके बावजूद लग रहा था कि नीतीश के प्रति नाराजगी इन संसाधनों पर भारी पड़ेगी लेकिन सत्ता की ताकत, उसके हजार हाथ भारी पड़ गए और आखिर सत्ता की जीत हुई.
ये सवाल बेमानी हो गए कि बिहार में उद्योग-धंधे विकसित क्यों नहीं हो पा रहे हैं? लोगों को काम की तलाश में देश के दूरदराज इलाकों में क्यों जाना पड़ता है? सरकारी नौकरियों में साढ़े पांच लाख से ज्यादा पद क्यों खाली पड़े हुए हैं? कोविड के दौरान आंकड़ों को छिपाने की कोशिश क्यों की गई? कोविड से कितनी मौतें हुईं, इसका आंकड़ा सरकार क्यों छिपा रही है? बिहार के लोग इतने कुशाग्र और मेहनतकश हैं फिर भी उनके लिए बिहार में कोई अवसर उपलब्ध क्यों नहीं है?
इन सवालों को आरजेडी के तेजस्वी यादव ने पूरी ताकत से उठाया. बिहार के युवाओं के सामने 10 लाख नौकरियों के सृजन का वादा भी रखा. सरकार की पूरी पोल खोलने के लिए एड़ी-चोटी का जोर भी लगा दिया लेकिन वे संसाधनों की कमी से जूझ रहे थे. उनकी पीठ पर हाथ रखने के लिए उनके पिता लालू प्रसाद यादव मैदान में नहीं थे. इधर असदुद्दीन ओवैसी उन्हीं का वोट काटने के लिए मैदान में उतर चुके थे. ओवैसी ने अंतत: पांच सीटें जीत भी ली हैं.
जाहिर सी बात है कि ओवैसी की पार्टी ने महागठबंधन का वोट काटा है. चिराग पासवान ने नीतीश के जदयू को तो नुकसान पहुंचाया ही है, राजद को मिलने वाले दलित वर्ग के वोट भी काट लिए. चिराग पासवान और ओवैसी भाजपा की ‘बी टीम’ बनकर विपक्ष को हानि पहुंचा रहे थे. इसके बावजूद तेजस्वी यादव ने जिस तरह का हौसला दिखाया और एनडीए को जिस तरह की टक्कर दी, वह निश्चय ही काबिलेतारीफ है. उनके नेतृत्व में आरजेडी सबसे बड़े दल के रूप में उभरा है.
यदि ओवैसी मैदान में न होते और कांग्रेस पिछले चुनाव जितनी भी सीटें ले आती तो आज बिहार के मुख्यमंत्री पद पर तेजस्वी यादव बैठे होते. कांग्रेस को ज्यादा सीटें देना उनके लिए घातक साबित हुआ. इन सबके बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं कि तेजस्वी बिहार की नई उम्मीद बनकर उभरे हैं. उन्होंने नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया है.
जहां तक एनडीए की जीत का सवाल है तो इसमें महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और बिहार चुनाव के प्रभारी देवेंद्र फडणवीस का बहुत बड़ा योगदान रहा है. उन्हें पता था कि नीतीश कुमार का ग्राफ नीचे गिरा है इसलिए भाजपा को ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहिए. नीतीश के अड़ियल रवैये को उन्होंने दरकिनार कर दिया था और इसी का नतीजा है कि भाजपा ने पिछले चुनाव की तुलना में 21 सीटें ज्यादा हासिल की हैं. उसने अपनी रणनीति कुशलता और चिराग का साथ लेकर जदयू का कद नीचे ला दिया है.
अब नीतीश कुमार भाजपा को आंखें दिखाने की स्थिति में बिलकुल नहीं हैं. भाजपा अब बड़े भाई की भूमिका में है. दरअसल नीतीश कुमार जब तक भाजपा की रणनीति को समझ पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी. भाजपा ने नीतीश की जमीन पर कब्जा कर लिया है. अगले चुनाव में नीतीश बची-खुची जमीन भी न खो दें. लेकिन यह बाद की बात है. नीतीश ने कह भी दिया है कि यह उनका आखिरी चुनाव था.
भाजपा की रणनीति है भी यही कि जहां भी संभव हो और जब भी संभव हो, सहयोगी दल को लंबा कर दिया जाए. महाराष्ट्र में यही काम उसने शिवसेना के साथ करने की कोशिश की थी लेकिन शिवसेना को बात समझ में आ गई और उसने भाजपा का साथ छोड़ दिया. नीतीश ऐसी हालत में पहुंच चुके हैं कि वे भाजपा का साथ छोड़ कर कहीं जा भी नहीं सकते! ..लेकिन इन सारी राजनीतिक परिस्थितियों के बीच सबसे बड़ा नुकसान बिहार का हुआ है. एनडीए और नीतीश कुमार चाहे जितने दावे करें, हकीकत यह है कि उनके राज में बिहार में कुछ भी नहीं बदला है. पिछड़े राज्य का ठप्पा अभी भी लगा हुआ है. ऐसा लगता है कि सत्ता जीत गई है लेकिन बिहार का आम आदमी हार गया है.