विजय दर्डा का ब्लॉग: कब आप बदलोगे, कब देश बदलेगा..?

By विजय दर्डा | Updated: June 21, 2021 15:16 IST2021-06-21T15:16:08+5:302021-06-21T15:16:08+5:30

मिल्खा सिंह को हमेशा यह मलाल रहा कि ओलंपिक में एथलीट सेक्शन में कोई भारतीय गोल्ड मेडल क्यों नहीं ला पाता है.

Vijay Darda blog about Milkha Singh When will you change when will the country change | विजय दर्डा का ब्लॉग: कब आप बदलोगे, कब देश बदलेगा..?

महान धावक मिल्खा सिंह। (फोटो सोर्स- सोशल मीडिया)

फ्लाइंग सिख का खिताब पाने वाले महान धावक मिल्खा सिंह के प्रति मैं नतमस्तक हूं और हर पल जेहन में बस दो ही खयाल आ रहे हैं. पहला खयाल तो यह कि क्या हम उनके जैसा धावक फिर कभी देख पाएंगे?..और दूसरा खयाल कि मिल्खा सिंह का अधूरा सपना कब पूरा हो पाएगा? उन्होंने सपना देखा था, उनका ख्वाब था कि कोई भारतीय ओलंपिक एथलीट में स्वर्ण पदक ले आए..! मैं सोच रहा हूं कि अधूरे सपने के साथ क्या सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती है?

कॉमनवेल्थ गेम में जब मिल्खा सिंह दौड़े और 40 वर्षो तक कायम रहने वाला बेमिसाल रिकॉर्ड बनाया तब उनके पास संसाधन नहीं थे. वो कठिन दौर था. ढंग के जूते भी नहीं थे. पौष्टिक खाना क्या होता है, यह पता ही नहीं था. प्रैक्टिस के दौरान वे नंगे पैर दौड़ते थे. इसके बावजूद उन्होंने कमाल दिखाया. उनकी पत्नी निर्मल कौर राष्ट्रीय वॉलीबॉल टीम की कप्तान रहीं और बेटे जीव मिल्खा सिंह गोल्फ के मैदान में आए. मिल्खा सिंह को हमेशा यह मलाल रहा कि ओलंपिक में एथलीट सेक्शन में कोई भारतीय गोल्ड मेडल क्यों नहीं ला पाता है. 

यह मलाल उनका ख्वाब बन गया. बोले- अनबोले वे इस ख्वाब को, इस सपने को प्रदर्शित भी करते थे. दुर्भाग्य की बात है कि उनके जीते जी यह सपना पूरा नहीं हो पाया. उनके निधन के साथ ही उनके सपने को भी देश इस समय याद कर रहा है. खेलों में उनके योगदान को याद किया जा रहा है. राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित पूरे देश ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की है. मैं सोच रहा हूं कि उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का वास्तविक तरीका तो यही हो सकता है कि जो सपना उन्होंने देखा, उसे पूरा किया जाए. नंगे पैर दौड़ने के उनके छाले को याद कर पाएं ताकि खिलाड़ियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार कर सकें. सपना तो ध्यानचंद का भी था कि हॉकी में भारत फिर वर्ल्ड चैंपियन बने.

दरअसल मिल्खा सिंह और ध्यानचंद के सपने को पूरा करने के लिए हमें कई मोर्चो पर एक साथ काम करना होगा. सबसे पहले तो हमें यह समझना पड़ेगा कि खेल केवल शारीरिक क्षमता बढ़ाने का माध्यम नहीं है. खेल का संबंध तो सीधे तौर पर हमारी राष्ट्रभक्ति, हमारे स्वाभिमान, हमारी उन्नति और हमारे राष्ट्र के अभिमान से है. ध्यान रखिए कि तिरंगा जीत के जश्न में फहराता है और जन गण मन की धुन जब बजती है तो रोम-रोम रोमांचित हो जाता है. जीतने वाले की आंखों से खुशी की अश्रुधारा बह निकलती है. मिल्खा सिंह का यही सपना था कि ओलंपिक के मैदान में जीत का जश्न मने, तिरंगा फहराए और जन गण मन की धुन का रोमांच पैदा हो जाए.

निश्चित ही अब माहौल बदल रहा है. किरण रिजिजु बहुत अच्छे मंत्री हैं. वे चाहते हैं कि देश में खेलों का वातावरण बने. जिन बच्चों में क्षमताएं हैं उन्हें अवसर मिले. कहा जा सकता है कि खेल के प्रति सरकार सचेत होती हुई दिख रही है सरकार को लगने लगा है कि खेलों पर खर्च करना चाहिए लेकिन माहौल अभी भी इतना सकारात्मक तो नहीं ही हुआ है कि हम कोई मिल्खा सिंह फिर से खड़ा कर लें. यदि हमें वास्तव में खिलाड़ियों की पीढ़ी तैयार करनी है तो हमें चीन से, रूस से, क्रोएशिया से बहुत कुछ सीखना होगा कि उन देशों ने किस कदर बच्चों को तराशा है. आज खेल के मैदान में इन देशों के खिलाड़ी छाए रहते हैं तो वहां की सरकारी व्यवस्था का समर्पण सबसे बड़ा कारण है. मुङो याद है, मैं वर्ल्ड कप का मैच देख रहा था, क्रोएशिया की फुटबॉल टीम जब जीती तो वहां की राष्ट्रपति कोलिंडा ग्रेबर ड्रेसिंग में जा पहुंचीं और पसीने से लथपथ खिलाड़ियों को गले से लगा लिया और उन्हें चूमा. अपने खिलाड़ियों के प्रति यह दृश्य हम कब देखेंगे?

हमारे देश में खेलों को लेकर क्या हालात हैं, यह हम सभी देख रहे हैं. स्कूल के समय से ही हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किस बच्चे में किस खेल की संभावनाएं हैं. वहीं उनका चयन होना चाहिए और वहीं से उनका प्रशिक्षण प्रारंभ हो जाना चाहिए. लेकिन आज हमारे बच्चे खेल के मैदानों से दूर हो गए हैं और मोबाइल स्क्रीन में कैद होकर रह गए हैं. न माता-पिता को ज्यादा फिक्र है और न ही हमारी सरकार को. बच्चों के खेल के मैदान भी सिकुड़ते जा रहे हैं. उन पर कांक्रीट के जंगल तैयार हो रहे हैं. आज हमारे बीच यदि साइना नेहवाल उभर कर आती हैं तो इसमें सरकार का कोई योगदान नहीं है. 

यह तो उस मां की तमन्ना का परिणाम है जो साइना को पांच वर्ष की उम्र से ही तालीम देती है और संकल्प लेती है कि इसे वर्ल्ड चैंपियन बनाएंगे. साइना नेहवाल की मां ऊषा रानी नेहवाल सात महीने के गर्भ से होती हैं और एक स्थानीय मैच खेलती हैं तो यह उनका जुनून है. साइना नेहवाल हों, सानिया मिर्जा हों या मेरी कॉम या इन जैसी दूसरी खिलाड़ी, वे सब अपने बलबूते संघर्ष करके मैदान में जलवा दिखा पाई हैं. कई लोगों में संभावनाएं होती हैं लेकिन विभिन्न कारणों से वे कई बार आगे नहीं बढ़ पाती हैं. खेल से राजनीति को दूर रखना होगा, तभी सफलता मिलेगी. कभी मैंने सुना था कि दुनिया में नाम कमाने वाली महाराष्ट्र की निशानेबाज अंजलि भागवत को बहुत परेशान किया गया. उन्हें बहुत सताया गया था. ऐसी और भी घटनाएं सामने आती रही हैं. यदि इस तरह की घटनाएं होंगी तो कोई खेल को अपनी जिंदगी क्यों बनाएगा?

संभावनापूर्ण बच्चों की तलाश करना और उन्हें तैयार करना कोई असंभव काम नहीं है. इसके लिए बस दृष्टिकोण की जरूरत है. आप बच्चों को तलाशिए और औद्योगिक घरानों को जिम्मेदारी दे दीजिए कि वे उन्हें तराशें. हां, इसमें इस बात का ध्यान रखना बहुत जरूरी होगा कि सरकार कोई हस्तक्षेप न करे और औद्योगिक घरानों को पूरी छूट इसके लिए मिलनी चाहिए. और हां, इस बात का भी ध्यान रखिए कि क्रिकेट के उन्माद में दूसरे खेल तबाह न हो जाएं. हमें समझना होगा कि क्रिकेट राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेल नहीं है. न ओलंपिक में है और न कॉमनवेल्थ गेम में है. ये क्लबों का खेल है. 

मगर हिंदुस्तान में क्रिकेट जैसे धर्म बन गया है. क्रिकेट के पास जितना पैसा है, उसे लेकर प्रपंच और घपले की कहानियां अलग हैं. मैं उन पर कोई चर्चा नहीं करना चाहूंगा. मेरा तो इस वक्त केवल यह कहना है कि मिल्खा सिंह के सपने को पूरा करने और दुनिया के खेल मैदान में तिरंगा फहराने के लिए हमें बच्चों में जोश, जुनून और आशिकी पैदा करने की जरूरत है.और अंत में व्यवस्था से बस यही सवाल है कि कब आप बदलोगे, कब देश बदलेगा, कब होगा सपना पूरा?

Web Title: Vijay Darda blog about Milkha Singh When will you change when will the country change

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