समान नागरिक संहिता लागू करने की चुनौतियां कम नहीं, राजेश बादल का ब्लॉग

By राजेश बादल | Updated: July 14, 2021 17:37 IST2021-07-14T17:36:10+5:302021-07-14T17:37:59+5:30

समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पेश किए जाने का समर्थन करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि अलग-अलग ‘पर्सनल लॉ’ के कारण भारतीय युवाओं को विवाह और तलाक के संबंध में समस्याओं से जूझने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता.

Uniform Civil Code delhi high court Challenges of implementing no less Rajesh Badal's blog | समान नागरिक संहिता लागू करने की चुनौतियां कम नहीं, राजेश बादल का ब्लॉग

संविधान की मंशा होते हुए भी सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए समान संहिता तैयार करना इतना जटिल और उलझन भरा है.

Highlightsधारा 44 की मंशा के मुताबिक सारे देशवासियों के लिए समान संहिता पर अमल होना चाहिए. जब संविधान सभा में इस पर बहस हो रही थी तो वह काफी उत्तेजना से भरी थी.संसद में चर्चा हो जाए तो यकीन मानिए कि वह भी काफी हंगामाखेज रहेगी.

इन दिनों भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की बहस चल पड़ी है. यह बहस दिल्ली उच्च न्यायालय की एक टिप्पणी के बाद आई है.

न्यायालय ने कहा है कि संविधान की धारा 44 की मंशा के मुताबिक सारे देशवासियों के लिए समान संहिता पर अमल होना चाहिए. यह धारा कहती है,‘राज्य देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता के निर्माण का प्रयास करेगी.’ जब संविधान सभा में इस पर बहस हो रही थी तो वह काफी उत्तेजना से भरी थी.

पचहत्तर साल बाद भी अगर इस मसले पर संसद में चर्चा हो जाए तो यकीन मानिए कि वह भी काफी हंगामाखेज रहेगी. भारत जैसे विविधताओं से भरे मुल्क में रहते हुए अपने-अपने प्रतीकों को छोड़ना किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय के लिए आसान नहीं है. बावजूद इसके कि भारत के प्रति देशभक्ति में कोई कमी नहीं है.

फिर क्या कारण है कि संविधान की मंशा होते हुए भी सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए समान संहिता तैयार करना इतना जटिल और उलझन भरा है. इस मुश्किल का सामना संविधान सभा ने भी किया था. तभी तो धारा 44 में राज्य की ओर से संहिता निर्माण के सिर्फ प्रयास की बात कही गई है. क्योंकि वाकई में यह बहुत कठिन था. इस गुत्थी को समझने के लिए हमें संविधान सभा के कुछ पन्नों को पलटना पड़ेगा.

दरअसल अंग्रेजों ने भी गुलाम हिंदुस्तान में समान नागरिक संहिता का प्रयास किया था. इसके लिए 1941 में बी.एन. राव की अगुवाई में समिति गठित की गई थी. समिति ने देश भर में दौरे के बाद 1946 में हिंदू निजी कानून का एक मसविदा तैयार किया. इस मसविदे को 1948 में संविधान सभा ने एक और कमेटी के सामने पेश किया. इसके अध्यक्ष खुद कानून मंत्री डॉ. बाबासाहब आंबेडकर थे.

उन्होंने इसका गहन अध्ययन किया. इसमें सिखों ,बौद्धों, जैनियों और हिंदुओं को शामिल किया गया था. पर मुस्लिमों, ईसाइयों और पारसियों को किस आधार पर छोड़ा गया था इसका उत्तर बहुत साफ नहीं है. यह जरूर है कि मुस्लिम समुदाय समान संहिता के सख्त खिलाफ था. इसके अलावा संविधान सभा के अध्यक्ष डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ही इसके पक्ष में नहीं थे.

विरोध इतना व्यापक हुआ कि जवाहरलाल नेहरू और बाबासाहब आंबेडकर अकेले पड़ गए. उनका तर्क था कि यह निर्वाचित संसद नहीं है. इसके अधिकार सीमित हैं. बात सच थी. नौबत यहां तक पहुंची कि नेहरूजी ने हथियार डाल दिए. उनके इस रूप को देखकर दुखी बाबासाहब आंबेडकर ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया.

बाद में दस साल तक भारी रस्साकशी के बाद बाबासाहब आंबेडकर का हिंदू कोड बिल पास तो हुआ मगर उसके टुकड़े-टुकड़े हो गए थे. एक बार नेहरूजी से पूछा गया कि वे पूरे देश में तत्काल समान नागरिक संहिता लागू क्यों नहीं करते. उनके पास तो बहुमत से चुनी सरकार है. नेहरूजी का उत्तर था, ‘‘मैं समान संहिता के पक्ष में हूं,लेकिन मुझे नहीं लगता कि वर्तमान हालात इसके अनुकूल हैं.

मैं इसके लिए माहौल बनाना चाहता हूं. हिंदू कोड बिल उसी दिशा में कदम है. वैसे तो कहानी लंबी है पर इस पृष्ठभूमि से कई संकेत मिलते हैं. कहा जा सकता है कि नेहरूजी के बाद किसी सरकार या प्रधानमंत्री ने इस नाजुक और संवेदनशील मसले पर गंभीरतापूर्वक काम नहीं किया. नेहरूजी जिस माहौल बनाने की बात कर रहे थे, उस दिशा में कोई आगे नहीं बढ़ा.

सिर्फ चुनाव में बहुमत मिलने और ऐसे मुद्दों पर कैबिनेट में फैसला लेने से ही बात नहीं बनती. उसके लिए राष्ट्र को भावनात्मक और मानसिक रूप से तैयार करना होता है. बहुमत तो नेहरूजी के पास अपार था, पर वे कभी जन भावनाओं की उपेक्षा नहीं करना चाहते थे. मौजूदा सरकार के लिए यह अनुभवजन्य संदेश है. उसे यहां से अवाम के सामने नई उदार शुरुआत करनी होगी.

भीख मांगने, दहेज मांगने और बाल विवाह रोकने जैसे कानूनों पर तो अमल हम कर नहीं पाए? यह आदर्श है कि समान संहिता हो, मगर हिन्दुस्तान जैसा विराट राष्ट्र यदि एक सूत्र में बंधा है तो उसके पीछे यही कारण है कि हम सबने अपने रीति रिवाजों, मान्यताओं, धारणाओं और काफी हद तक कुरूपताओं के संग जीना सीख लिया है. जो लोग यूरोप या पश्चिम के देशों का हवाला देते हैं, उन्हें अतीत भी देखना होगा.

शताब्दियों तक कुचली गई अवाम की मानसिकता को पढ़ना होगा. यह भी ध्यान में रखना होगा कि उन देशों में एक धर्म, एक भाषा, कम आबादी, उच्च साक्षरता और संपन्नता सब कुछ समान है. वास्तव में हिंदुस्तान तो अपने आप में अनेक देश समेटे हुए है.

सार की बात यह कि जब हम अपनी विविधता में एकता पर गर्व कर सकते हैं तो सारे धर्म और जातियां मौजूदा हाल में क्यों नहीं जी सकते. दूर करना है तो हर धर्म,जाति और संप्रदाय अपने अंदर के दोषों को दूर करे. समान संहिता के लिए तो अभी वर्षों तक जमीन तैयार करनी होगी. 

Web Title: Uniform Civil Code delhi high court Challenges of implementing no less Rajesh Badal's blog

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे