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ब्लॉगः कांग्रेस का आलाकमान तीन सदस्यीय न रहकर चार सदस्यीय हो गया है, खड़गे के सामने दो बड़ी समस्याएं...

By अभय कुमार दुबे | Updated: October 26, 2022 16:26 IST

पिछले अठारह साल से कांग्रेस के जिला स्तर के संगठन से लेकर प्रदेश स्तर तक जो भी पदाधिकारी रहे हैं, वे सोनिया और राहुल के बनाये हुए ही हैं। खड़गे अगर इन्हें बदलना चाहेंगे तो उसके लिए भी उन्हें गांधी परिवार से इजाजत लेनी पड़ेगी।

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अब एक राजनीतिक समीक्षक के रूप में मुझे देखना यह है कि मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी को कौन सा नया रूप देने वाले हैं। इसके लिए हमें उस अवधि के बारे में सोचना होगा जब राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष बने थे। राहुल के अध्यक्ष पद छोड़ने और खड़गे के अध्यक्ष चुने जाने के बीच गुजरे पिछले तीन सालों में सोनिया गांधी केवल पार्टी को बिखरने से रोकने का काम कर रही थीं। अध्यक्ष न होते हुए भी सारे फैसले राहुल ही लेते थे। पाठकों को याद होगा कि कांग्रेस का अध्यक्ष बनते ही राहुल गांधी ने पार्टी को नया रूप देना शुरू कर दिया था। प्रदेशों के कांग्रेस अध्यक्षों के इस्तीफों की चर्चा शुरू हो गई थी। पहली नजर में ऐसा लग रहा था कि राहुल पार्टी में जमे बैठे पुराने ब्राह्मण नेतृत्व की जगह धीरे-धीरे पिछड़े वर्ग से आए ऐसे नेताओं को बैठाना चाहते हैं जो उनके विश्वासपात्र हैं। अशोक गहलोत और राजीव सातव पिछड़े वर्ग के थे और दोनों को अहमियत दी गई थी। एक तरह से गहलोत कांग्रेस के सांगठनिक पदानुक्रम में एक नई ताकत बन कर उभरे थे।

पिछले अठारह साल से कांग्रेस के जिला स्तर के संगठन से लेकर प्रदेश स्तर तक जो भी पदाधिकारी रहे हैं, वे सोनिया और राहुल के बनाये हुए ही हैं। खड़गे अगर इन्हें बदलना चाहेंगे तो उसके लिए भी उन्हें गांधी परिवार से इजाजत लेनी पड़ेगी। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि अब तकनीकी रूप से कांग्रेस का आलाकमान तीन सदस्यीय (सोनिया, प्रियंका और राहुल) का न रहकर चार सदस्यीय हो गया है।

खड़गे की दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह साबित होगी कि उन्हें कांग्रेस को उसके पुराने सेक्युलरवाद और नए ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ के बीच की दुविधा से निकालना होगा। भारतीय राजनीति का सांप्रदायिकीकरण रातोंरात नहीं हुआ, बल्कि पूरे एक दशक के दौरान होता रहा। बहुत हद तक यह हिंदू राष्ट्रवाद का विनियोग करने की कांग्रेस की तत्परता का परिणाम था। यह मान्यता गुमराह करने वाली है कि भाजपा और कांग्रेस दो विपरीत विचारधाराओं पर खड़ी हैं और भाजपा ने कांग्रेस को विचारधारात्मक रूप से पराजित कर दिया है। अस्सी और नब्बे के दशकों में जो हुआ वह दरअसल उस सांस्कृतिक प्रामाणिकता के लिए दो पार्टियों के बीच हुई प्रतियोगिता थी जो कांग्रेस और भाजपा बहुसंख्यकों की सांप्रदायिक भावनाओं को अपनी ओर झुका कर हासिल करना चाहती थीं। खड़गे को एक नई सांगठनिक रणनीति चाहिए, और एक नई वैचारिक रणनीति। उनके पास समय भी बहुत कम है। वे अस्सी साल के हैं। इसलिए उनसे बहुत सक्रियता की मांग करना उचित नहीं होगा। लेकिन, वे रणनीति के सूत्रीकरण के मामले में वह करके दिखा सकते हैं जो गांधी परिवार उनके बिना करने में नाकाम रहा है।

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