ब्लॉग: लोकतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था में पारदर्शिता जरूरी
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: March 18, 2024 09:59 AM2024-03-18T09:59:09+5:302024-03-18T10:00:57+5:30
सरकार ने योजना की शुरुआत पर कहा था कि यह देश में राजनीतिक चंदे की व्यवस्था को साफ कर देगी। मगर सर्वोच्च अदालत ने इसे असंवैधानिक ठहरा कर रद्द कर दिया। मजेदार बात यह है कि पिछले लगभग छह साल की अवधि में सभी राजनीतिक दलों को चुनावी बांड कम-ज्यादा मिले।
उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद चुनावी बांड के आंकड़े सार्वजनिक होने से सामने आई जानकारी आश्चर्यजनक नहीं है। करीब दस साल से केंद्र की सत्ता और करीब आधा दर्जन से अधिक राज्यों पर कई सालों से काबिज होने के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को चुनावी चंदा सबसे अधिक मिलना स्वाभाविक है। यह दान पहले भी मिला और भारत के लगभग सभी दलों को मिला. चुनावी बांड के नए आंकड़े भी इस बात को साबित कर रहे हैं।
अब समस्या यह है कि किस उद्योग समूह ने चुनावी बांड को खरीदा और किस दल को दिया। उसके एवज में उसे सरकार के स्तर पर क्या फायदा मिला। यह एक सामान्य ज्ञान की बात है कि कोई भी उद्योग-व्यापार लाभ अर्जित करने के लिए होता है, हानि के लिए नहीं। ऐसे में कोई भी कंपनी लाभ मिलने पर ही चंदा दे सकती है। देखा जाए तो कुछ हद तक चुनावी बांड के आंकड़े इसी बात को उजागर कर रहे हैं। ऐसे में राजनीति के लिए आरोप-प्रत्यारोप करने से अधिक कोई दूसरा अवसर रह नहीं जाता है। विदित हो कि भारत सरकार ने चुनावी बांड योजना की घोषणा वर्ष 2017 में की थी और इसे 29 जनवरी 2018 को कानूनी तौर पर लागू किया था।
इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक को राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बांड जारी करने का अधिकार दिया था। सरकार ने योजना की शुरुआत पर कहा था कि यह देश में राजनीतिक चंदे की व्यवस्था को साफ कर देगी। मगर सर्वोच्च अदालत ने इसे असंवैधानिक ठहरा कर रद्द कर दिया। मजेदार बात यह है कि पिछले लगभग छह साल की अवधि में सभी राजनीतिक दलों को चुनावी बांड कम-ज्यादा मिले। किसी ने भी अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया. सारा मामला तब खुला, जब एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने याचिका दायर कर समूचे मामले को चुनौती दी। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी एकमात्र पार्टी थी, जिसने कभी बांड का उपयोग नहीं किया। दूसरी ओर वर्तमान समय में यह मानने में भी कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि चुनाव बहुत महंगे हो चले हैं। बढ़ते चुनावी खर्च से राजनीतिक दलों ने भी धन जुटाने के रास्ते निकाल लिए हैं। इसलिए यदि चुनाव और राजनीतिक व्यवस्था को पारदर्शी बनाना है तो चंदे के बारे में व्यावहारिक तौर पर सोचना होगा। यूं तो केंद्र और राज्य सरकारों के मुनाफा कमाने वाली कंपनियों से रिश्ते कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन चेक, ड्राफ्ट और पे ऑर्डर से भुगतान कर खुलापन लाया गया तो चुनावी चंदे पर स्पष्टता बनी रहेगी।
वहीं चंदा देने वाले अपने वित्तीय विवरण में अपनी जानकारी सार्वजनिक करें और चंदा लेने वाले दल अपने रिटर्न में दान लेने वालों के बारे में बताएं तो सारी समस्या का हल निकल सकता है। इसी क्रम में सरकारी चुनावी सहायता का प्रावधान किया जाए तो उससे खुलासा आसान होगा। वर्ना चोर दरवाजे बनने और बनाने से समस्या का हल निकलेगा नहीं और चुनावों पर अवैध धन का खुला खेल चलता रहेगा। कोई खुश और कोई दु:खी हमेशा बना रहेगा।