ब्लॉगः भारत-पाक मैच में दर्शकों द्वारा राष्ट्रगान का सामूहिक पाठ, भावुकता का यह सैलाब सच्चा है या राजनेताओं द्वारा फैलाई जाने वाली पारस्परिक घृणा?
By विश्वनाथ सचदेव | Published: October 27, 2022 03:18 PM2022-10-27T15:18:56+5:302022-10-27T15:19:45+5:30
आज मैं सोच रहा हूं भावुकता का यह सैलाब सच्चा है या हमारे राजनेताओं द्वारा धर्म और जाति के नाम पर फैलाई जाने वाली पारस्परिक घृणा? नहीं, यह कतई सही नहीं है कि हमारे देश में फैलाई जाने वाली सांप्रदायिकता हमारा स्थायी भाव है।
भारत और पाकिस्तान का क्रिकेट मुकाबला हमेशा ही रोमांचक होता है, पर इस बार ऑस्ट्रेलिया में हो रहे टी-20 विश्व कप के अपने पहले ही मैच में पाकिस्तान पर भारत की जीत कुछ विशेष ही रोमांचक थी। उन करोड़ों भारतीयों में मैं भी था जो इस मुकाबले को टी.वी. पर देखकर रोमांचित हो रहे थे। पर यदि आप मुझसे पूछें कि मुकाबले का सबसे रोमांचक क्षण कौन-सा था तो मैं स्टेडियम में उपस्थित हजारों भारतीयों द्वारा किए गए राष्ट्र-गान के सामूहिक पाठ के अवसर का नाम लूंगा।
नहीं मैं इस सामूहिक गान को ‘लाइव’ नहीं देख पाया था। आखिरी गेंद पर मिली विजय के बाद मैं पठान, गावस्कर और श्रीकांत की तरह खुशी मना रहा था। बाद में टी.वी पर उस सामूहिक राष्ट्र-गान के दृश्य दिखाए गए थे। जन-गण- मन के साथ मैदान में लहराते तिरंगे को देखना भावुक बना देने वाला था। यह भावुकता दर्शकों के राष्ट्र-प्रेम को दर्शाने वाली थी।
और आज मैं सोच रहा हूं भावुकता का यह सैलाब सच्चा है या हमारे राजनेताओं द्वारा धर्म और जाति के नाम पर फैलाई जाने वाली पारस्परिक घृणा? नहीं, यह कतई सही नहीं है कि हमारे देश में फैलाई जाने वाली सांप्रदायिकता हमारा स्थायी भाव है। विभिन्न धर्मों, जातियों, भाषाओं, वर्गों वाला भारत निश्चित रूप से विभिन्नता में एकता का एक उदाहरण है। हमारी यह विभिन्नता हमारी ताकत है। लेकिन इस हकीकत से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक स्वार्थों के चलते या फिर स्वयं को दूसरे से अधिक भारतीय समझने के भ्रम में जब-तब देश में सांप्रदायिकता की आग अपनी तपिश से हमें झुलसा जाती है।
सन् 2002 के गुजरात की हिंसा की बात की जाती है तो वर्ष 1984 के दिल्ली-दंगों की याद दिलाना ज़रूरी समझता है हमारा नेतृत्व। दिल्ली में जो कुछ हुआ था उसका बचाव किसी भी दृष्टि से नहीं किया जा सकता, लेकिन यदि उसे ढाल बनाकर गुजरात की हिंसा का बचाव करने की कोशिश होती है तो उसे भी किसी अपराध से कम नहीं माना जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में पूरा विश्वास जताते हुए भी यह कहना जरूरी लग रहा है कि अपने शब्दों से हिंसा की आग को भड़काना भी एक जघन्य अपराध है।
एक जनतांत्रिक देश में कुछ दायित्व देश के नागरिक का भी होता है। हर जागरूक और विवेकशील नागरिक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह समाज में घृणा फैलाने की कोशिशों का मुकाबला करने में पहल करें। अपने देश पर, अपनी परंपराओं पर, अपनी साझा संस्कृति पर गर्व होना चाहिए हमें। उस दिन मेलबोर्न में हुए क्रिकेट के मुकाबले में सामूहिक राष्ट्र-गान के समय छलकी राष्ट्र-प्रेम की भावना हमारे जीवन में एक स्थायी भाव बननी चाहिए।