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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: एंटी-इनकम्बेंसी को पलटने की दिखी कला

By अभय कुमार दुबे | Updated: December 9, 2022 11:14 IST

गुजरात विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा ने शानदार जीत दर्ज न की होती या चुनाव कांटे का होता तो दिल्ली एमसीडी और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का मुद्दा उभर सकता था और 2024 में लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित कर सकता था। 

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ठळक मुद्देतीन चुनावों में से दो चुनाव भाजपा हार गई और एक में उसने बड़ी जीत दर्ज की।गुजरात में 27 साल की एंटी-इनकम्बेंसी से न केवल भाजपा ने पार ही पाया, बल्कि इसे शानदार तरीके से प्रो-इनकम्बेंसी में बदल दिया।दिल्ली एमसीडी में भाजपा को भ्रष्टाचार का मुद्दा ले डूबा।

तीन चुनावों में से दो चुनाव भाजपा हार गई और एक में उसने बड़ी जीत दर्ज की। ध्यान देने की बात यह है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में अगर उसने शानदार जीत दर्ज न की होती या चुनाव कांटे का होता तो दिल्ली एमसीडी और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का मुद्दा उभर सकता था और 2024 में लोकसभा चुनाव को भी प्रभावित कर सकता था। 

उल्लेखनीय है कि तीनों स्थानों पर पहले भाजपा की सत्ता थी और इन चुनावों में उसे एंटी-इनकम्बेंसी का सामना करना था। हिमाचल प्रदेश में जहां वह पांच साल की एंटी-इनकम्बेंसी का सामना नहीं कर पाई, वहीं दिल्ली एमसीडी में 15 साल की एंटी-इनकम्बेंसी उसे ले डूबी। लेकिन गुजरात में 27 साल की एंटी-इनकम्बेंसी से न केवल उसने पार ही पाया, बल्कि इसे शानदार तरीके से प्रो-इनकम्बेंसी में बदल दिया।

दिल्ली एमसीडी में भाजपा को भ्रष्टाचार का मुद्दा ले डूबा। भाजपा को इसका पहले से ही अंदाजा था, इसलिए पहले तो उसने चुनावों को टालने की कोशिश की, फिर तीन निगमों को एक किया। सीटों की पुनर्रचना कुछ इस तरह से की कि आप के प्रभाव वाले इलाकों को भाजपा के वर्चस्व वाले इलाकों से जोड़कर पार्टी का बहुमत बनाया जा सके। 

दरअसल कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक निगम को तीन हिस्सों में इसलिए बांटा था कि इसका प्रमुख बनने वाला कोई नेता इतना शक्तिशाली न बन जाए कि पार्टी को चुनौती दे सके। इसके उलट भाजपा ने तीन निगमों को एक में इसलिए जोड़ा ताकि उसका मुखिया मजबूत बने और पार्टी उसे मुख्यमंत्री पद का दावेदार बना सके। लेकिन उसकी कोई भी युक्ति काम नहीं आई और पार्टी को वहां हार का सामना पड़ा।

गुजरात में लेकिन इसी एंटी-इनकम्बेंसी ने विपरीत काम किया। 2017 के चुनावों में पार्टी को आभास हो गया था कि उसके खिलाफ वहां लोगों में नाराजगी पनपने लगी है। इसलिए उसने संगठन को बदला, मुख्यमंत्री बदले। किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी किए। जिलाधिकारियों को आदेश दिया कि योजनाओं के लाभार्थियों का पता लगाए और कोई भी लाभार्थी छूटने न पाए। 

डिलीवरी सिस्टम को दुरुस्त किया और योजनाओं की प्रगति को ट्रैक करने के लिए भी योजना बनाई। उधर कांग्रेस ने वहां चुनावों को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई, राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा एक तरह से राजनीति छोड़ो यात्रा बन गई। पिछले चुनावों के मुकाबले कांग्रेस ने गुजरात में इस बार 12 गुना कम काम किया। इन सारी चीजों का फायदा भाजपा को मिला और वहां की एंटी-इनकम्बेंसी को उसने प्रो-इनकम्बेंसी में बदल दिया।

हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री के खिलाफ जनता में नाराजगी थी। पुरानी पेंशन योजना के मुद्दे पर भाजपा बैकफुट पर आ गई थी। सेब किसानों में राज्य सरकार के खिलाफ नाराजगी थी और महिलाएं भी सरकार से संतुष्ट नहीं थीं। इसके अलावा वहां के अधिकांश निर्वाचन क्षेत्र आकार में छोटे हैं और सौ-पचास वोटों से भी जीत-हार तय होती है। 

ध्यान देने की बात यह है कि वहां कांग्रेस और भाजपा के वोट प्रतिशत में ज्यादा फर्क नहीं है, लगभग एक प्रतिशत वोट से ही भाजपा हारी है। तीनों चुनाव दर्शाते हैं कि एंटी-इनकम्बेंसी का सामना तो हर पार्टी को करना पड़ता है, महत्वपूर्ण यह है कि वह उससे निपटने के लिए क्या करती है। गुजरात के चुनाव परिणामों ने दिखाया है कि सरकार अगर जनता की नाराजगी के मुद्दों को समझ कर उन्हें दूर करे, योजनाओं की डिलीवरी के अपने सिस्टम को ठीक करे तो एंटी-इनकम्बेंसी को प्रो-इनकम्बेंसी में बदला जा सकता है।

टॅग्स :Bharatiya Janata Partyहिमाचल प्रदेश चुनाव 2022गुजरात विधानसभा चुनाव 2022Gujarat Election 2022:
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