सबके साथ मिलकर लड़ना होगा आतंकवाद से

By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 21, 2019 02:41 PM2019-02-21T14:41:00+5:302019-02-21T14:41:00+5:30

पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद देशभर में जिस तरह का गुस्सा फूट रहा है, वह स्वाभाविक भी है, और एक तरह से आश्वासन देने वाला भी

Terrorism will fight together with everyone | सबके साथ मिलकर लड़ना होगा आतंकवाद से

सबके साथ मिलकर लड़ना होगा आतंकवाद से

पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद देशभर में जिस तरह का गुस्सा फूट रहा है, वह स्वाभाविक भी है, और एक तरह से आश्वासन देने वाला भी. आश्वासन इस बात का कि सारे मतभेदों के बावजूद राष्ट्र की एकता और सुरक्षा के सवाल पर हम सब एक हैं. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और असम से लेकर कच्छ तक जिस तरह का गुस्से और बदला लेने का माहौल बन रहा है, वह इस बात का भी प्रतीक है कि राष्ट्र-विरोधी ताकतों को किसी भी कीमत पर सफल न होने देने के लिए देश कृत-संकल्प है. इस जोश और जज्बे को सलाम. उम्मीद की जानी चाहिए कि देश का नेतृत्व इस भावना को सही दिशा देने में सफल होगा.

राष्ट्रवाद के  इसी ज्वार में सबसे बड़ा खतरा भावनाओं में बह जाने का होता है. इसीलिए जोश में होश न खोने की बात की जाती है; संयम और अनुशासन को बनाए रखने की जरूरत को रेखांकित किया जाता है. यह सही है कि पिछले एक लंबे अर्से से कश्मीर में अलगाववादी ताकतें सिर उठा रही हैं; यह भी सही है कि हमारा पड़ोसी पाकिस्तान स्थिति का लाभ उठाने की हर समय कोशिश करता रहा है. न तो कश्मीर में राष्ट्र-विरोधी ताकतों के सिर उठाने की अवहेलना की जा सकती है, और न ही पाकिस्तान की नापाक हरकतों को सिर्फ बदला लेने तक सीमित रखा जा सकता है. सवाल बदला लेने का ही नहीं है, उन इरादों को भी विफल बनाने का है, जो हमारे देश की एकता-अखंडता और संप्रभुता को चुनौती दे रहे हैं. लेकिन इस सबके बीच इस बात का ध्यान रखा जाना जरूरी है कि हमारी लड़ाई आतंकवाद से है. हमें उन प्रवृत्तियों और ताकतों को समाप्त करना और विफल बनाना है, जो आतंकवादी गतिविधियों से हमारे देश को कमजोर बनाने में लगी हैं. ये ताकतें बाहरी मुल्क की शह पर भी काम कर सकती हैं, और हमारे बीच भी सक्रिय हो सकती हैं. 

पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद बने माहौल में कुछ ऐसा भी हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए था. खबरें बता रही हैं कि देहरादून, मेरठ और पानीपत जैसी जगहों पर आतंकवादियों के बजाय गुस्सा कश्मीरियों के खिलाफ भी फूट रहा है. इन जगहों पर और देश के अन्य हिस्सों में भी कश्मीर के विद्यार्थी उच्च शिक्षा पा रहे हैं. इन विद्यार्थियों को कहा जा रहा है कि वे वापस लौट जाएं! कहां लौट जाएं वे और क्यों? क्या वे भारत के नागरिक नहीं हैं? उन्हें लौटने की बात कह कर हम क्या संकेत देना चाहते हैं. देहरादून के एक कॉलेज ने तो यह भी घोषणा कर दी कि अगले सत्न से वह कश्मीरी विद्यार्थियों को प्रवेश ही नहीं देगा. कश्मीर हमारा है, पर कश्मीरी हमारे नहीं हैं, यह कैसा विचार है? क्या देश में धर्म और क्षेत्नीयता के नाम पर इस तरह की अलगाववादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देकर हम आतंकवादियों की ही सहायता नहीं कर रहे? 

बात चाहे सांप्रदायिकता की हो या फिर आतंकवाद की, इन दोनों के सहारे हमें कमजोर बनाने की ही कोशिश हो रही है. यह मानना गलत होगा कि चूंकि कश्मीर में कुछ अलगाववादी सक्रिय हैं इसलिए सारे कश्मीरी अलगाववादी हैं.

यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारा पड़ोसी वैश्विक आतंकवाद का केंद्र बनता जा रहा है और दुर्भाग्य की बात यह भी है कि वह यह भी नहीं समझना चाहता कि आतंकवाद का सहारा लेकर वह स्वयं अपनी जड़ें भी कमजोर बना रहा है, लेकिन इसे सिर्फ दुर्भाग्य कहकर बात नहीं बनती. बात बनाने के लिए मनुष्यता को इस दुर्भाग्य से मुक्त करने की कोशिशें जरूरी हैं.

इन्हीं कोशिशों में एक कोशिश अपने ही भीतर सिर उठा रही आतंकवादी सोच को समाप्त करने की है. यह सही है कि पुलवामा में आतंकवादी हमले को अंजाम देने वाला हमारे ही देश का नागरिक था. भले ही उसे आतंकवादी बनाने वाले आका पाकिस्तान में बैठे हों. वे इस काम में सफल हो गए इसका मतलब यह भी है कि अपने उस युवक को आतंकवादी सोच का शिकार बनने से बचाने में हम विफल रहे. ऐसा नहीं है कि इस दिशा में हमारी ओर से कोशिशें नहीं हो रहीं, लेकिन परिणाम बता रहे हैं कि यह कोशिशें पर्याप्त नहीं हैं. आतंकवादी जिस कश्मीरी युवा को बंदूक थमाने में सफल नहीं हो पाते, उसके हाथों में पत्थर थमा देते हैं. यह पत्थर फेंकने वाले हमारे ही बच्चे हैं. हमें ही उन्हें समझाना है कि ये हाथ पत्थर फेंकने के लिए नहीं, कारखानों में मशीनें बनाने के लिए हैं, खेतों में हल चलाने के लिए हैं. इन हाथों में हथियार नहीं, कलम या लैपटॉप होना चाहिए.

इस दिशा में कोशिशें हो रही हैं, इसका प्रमाण ही है देहरादून या मेरठ या पानीपत में पढ़ने वाले कश्मीरी युवा. कश्मीरी समाज में फैली निराशा को उचित शिक्षा और समुचित रोजगार देकर ही दूर किया जा सकता है. उन्हें कॉलेजों से लौट जाने के लिए कहकर तो हम विकास के उनके अवसर ही अवरु द्ध नहीं कर रहे, उस निराशा को बढ़ाने का काम भी कर रहे हैं जो युवाओं को गलत राह पर ले जाने का कारण बनती है. हमें इन युवाओं को साथ लेकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ना है. पंजाब में हम इस तरह की कोशिश में सफलता पा चुके हैं, कश्मीर में क्यों नहीं पा सकते?

आतंकवाद के खिलाफ लड़ी जाने वाली किसी भी लड़ाई की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सवा सौ करोड़ भारतीयों का यह देश, इस देश का हर नागरिक, स्वयं को कितना भारतीय समझता है. हमारी एकता और हमारी ताकत का सबसे बड़ा आधार भारतीयता की यही सोच है जो हमें धर्म, जाति और क्षेत्नीयता की सीमाओं से उबारकर ‘हम भारत के लोग’ बनाती है. हम भारत के लोगों को एक-दूसरे पर विश्वास करना सीखना होगा- इसके लिए संदेह नहीं, स्नेह की 

Web Title: Terrorism will fight together with everyone

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