ब्लॉग: जयकारे संग जिम्मेदारियों का संकल्प भी लें

By आलोक मेहता | Updated: August 15, 2024 13:56 IST2024-08-15T13:52:35+5:302024-08-15T13:56:37+5:30

भारत में सात दशकों के बाद भी अराजक तत्वों द्वारा ‘हमें चाहिए आजादी, लेकर रहेंगे आजादी’ का क्या औचित्य और छूट क्यों है? देश में कहीं कोई विदेशी या राजा का शासन नहीं है।

Take pledge of responsibilities with cheers | ब्लॉग: जयकारे संग जिम्मेदारियों का संकल्प भी लें

फोटो क्रेडिट- एक्स

Highlightsअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान में हर नागरिक के लिए हैपत्रकार उसी अधिकार का उपयोग करते हैंमनुष्यता, नैतिकता, सच्चाई, ईमानदारी के साथ कर्तव्य के सामान्य सिद्धांत हर नागरिक के लिए लागू

स्वतंत्रता दिवस पर एक बार फिर लाल किले के साथ संपूर्ण राष्ट्र में ‘जय हिंद’ और ‘आजादी अमर रहे’ के नारे गूंजेंगे। स्वतंत्रता की सबसे बड़ी उपलब्धि है-‘अभिव्यक्ति की आजादी’, लेकिन 77 वर्ष में स्वतंत्रता का जश्न मानते समय भारत ही नहीं, दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में भी सवाल उठ रहा है कि अभिव्यक्ति और सूचना-समाचार तंत्र और नए सोशल मीडिया की स्वतंत्रता की कोई सीमा रहेगी या नहीं?

भारत में सात दशकों के बाद भी अराजक तत्वों द्वारा ‘हमें चाहिए आजादी, लेकर रहेंगे आजादी’ का क्या औचित्य और छूट क्यों है? देश में कहीं कोई विदेशी या राजा का शासन नहीं है। वहीं खुले आम अराजकता का आह्वान या किसी भी माध्यम से सत्तारूढ़ अथवा विपक्ष के नेता, अधिकारी, सेना, व्यापारी, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षाविद, संस्कृतिकर्मी इत्यादि के चरित्र हनन के अधिकार की छूट कैसे दी जा सकती है?
 
संसद में लोकसभा के अध्यक्ष अथवा राज्यसभा के सभापति द्वारा संसदीय नियमों के उल्लंघन और अनर्गल बातों को सदन की कार्यवाही से निकालने के आदेश देते हैं, लेकिन टीवी से सीधे प्रसारण के कारण वही बातें न्यूज चैनलों अथवा विशाल सोशल मीडिया से देश-दुनिया में लगातार दिखाई-सुनाई जा रही हैं। ब्रिटेन में केबल टीवी एक्ट का प्राधिकरण है।

भारत में जब तक ऐसी नियामक संस्था नहीं हो, तब तक भारतीय प्रेस परिषद द्वारा निर्धारित नियमों, आचार संहिता का पालन टीवी-डिजिटल मीडिया में भी किया जाए। फिलहाल प्रिंट मीडिया का प्रभावशाली वर्ग ही प्रेस परिषद के नियम-संहिता की परवाह नहीं कर रहा है, क्योंकि उसके पास दंड देने का कोई अधिकार नहीं है जबकि प्रेस परिषद के अध्यक्ष सेवानिवृत्त वरिष्ठ न्यायाधीश ही होते हैं। 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान में हर नागरिक के लिए है। पत्रकार उसी अधिकार का उपयोग करते हैं। समाज में हर नागरिक के लिए मनुष्यता, नैतिकता, सच्चाई और ईमानदारी के साथ कर्तव्य के सामान्य सिद्धांत लागू होते हैं। पत्रकारों पर भी वह लागू होने चाहिए। सरकार से नियंत्रित व्यवस्था नहीं हो, लेकिन संसद, न्याय पालिका और पत्रकार बिरादरी द्वारा बनाई गई पंचायत यानी मीडिया परिषद जैसी संस्था के मार्गदर्शी नियम लक्ष्मण रेखा का पालन तो हो।
 
सुप्रीम कोर्ट ने कुछ वर्ष पहले राजद्रोह का कठोरतम कानून सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों पर लागू करने के राज्य सरकारों के प्रयासों को नितांत अनुचित ठहरा दिया था। न्याय के मंदिर से यही अपेक्षा थी। सर्वोच्च अदालत ने यह अवश्य स्पष्ट कर दिया कि हिंसा के जरिये अराजकता पैदा करने वाली उत्तेजक देशद्रोह जैसी प्रचार सामग्री पर इस कानून का प्रयोग संभव है। इस निर्णय से देशभर के पत्रकारों को बड़ी राहत महसूस हुई लेकिन राज्य सरकारों, उनकी पुलिस को भी अपनी सीमाओं को समझकर मनमानी की प्रवृत्ति को बदलना होगा।

लोकसभा, राज्यसभा तथा राज्य विधानमंडलों के प्रत्येक सदन के पीठासीन अधिकारियों को नियमों के अंतर्गत यह अधिकार है कि असंसदीय टिप्पणियों, शब्दों, भाषण, उसके हिस्से को सदन की कार्यवाही से निकाले जाने का आदेश दे सकते हैं। कार्यवाही से निकाले गए अंश पर तारा का निशान टंकित करके कार्यवाही में ‘आसन के आदेश से निकली’ टिप्पणी जोड़ दी जाती है। जिन राज्य विधान मंडलों के सदन की नियमावली में इसका स्पष्ट प्रावधान नहीं है, वहां यह सदन का अंतर्निहित अधिकार माना जाता है जिसके अंतर्गत पीठासीन अधिकारी कार्यवाही के असंसदीय हिस्से को कार्यवाही से निकाले जाने का आदेश दे सकता है।

इस संबंध में बिहार विधानसभा में 1957 में ‘सर्चलाइट’ अखबार का एक महत्वपूर्ण मामला था। विशेषाधिकार समिति ने 10 अगस्त 1958 को प्रस्ताव पारित करके ‘सर्चलाइट’ अखबार के संपादक एम।एस।एम। शर्मा तथा मुद्रक एवं प्रकाशक को कारण बताओ नोटिस जारी किया कि क्यों न उनके विरुद्ध सदन के विशेषाधिकार हनन की कार्यवाही की जाए। इस नोटिस के खिलाफ ‘सर्चलाइट’ की ओर से संविधान के अनुच्छेद-32 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट के समक्ष रिट याचिका दायर करके मांग की गई कि अखबार के खिलाफ 31 मई 1957 को प्रकाशित समाचार के संबंध में कोई कार्यवाही न करने का सदन को निर्देश दिया जाए।

‘सर्चलाइट’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने दो महत्वपूर्ण प्रश्न थे। पहला यह कि क्या विधानसभा को यह अधिकार है कि वह सदन की कार्यवाही से निकाले गए अंश को अखबार में प्रकाशित करने पर रोक लगा सकता है। दूसरा यह था कि यदि विधानसभा को कार्यवाही से निकाले गए अंश को प्रकाशित करने से रोकने का अधिकार हो तब भी एक नागरिक को वाणी तथा अभिव्यक्ति का अधिकार है तथा संसदीय विशेषाधिकार एवं अभिव्यक्ति के मूल अधिकार में अंतर्विरोध होने पर उनमें से किसको तरजीह दी जानी चाहिए। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा को अपनी कार्यवाही के किसी हिस्से को कार्यवाही से निकालने और उसे प्रकाशित करने से रोकने का विशेषाधिकार है तथा उसका उल्लंघन करने वालों को दंडित करने का अधिकार है। सदन के विशेषाधिकार तथा अनुच्छेद 19(1)क के अंतर्विरोध के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसी दशा में अभिव्यक्ति के अधिकार की तुलना में संसदीय विशेषाधिकारों को तरजीह दी जाएगी तथा नागरिकों को अभिव्यक्ति का अधिकार उस सीमा तक अप्राप्य होगा जिस सीमा तक उसका सदन के विशेषाधिकार के साथ अंतर्विरोध हो। 

सदन की कार्यवाही से निकाला जाने वाला अंश सदन की कार्यवाही का हिस्सा नहीं माना जाता। अतः उन अंशों के संबंध में अनुच्छेद 361(क) के द्वारा कार्यवाही की रिपोर्ट के प्रकाशन के संबंध में संचार माध्यमों को दी गई उन्मुक्ति उन्हें उपलब्ध नहीं होती। लेकिन अब किसी विधानसभा या संसद में इस तरह की कार्यवाही नहीं हो पा रही है और न ही अदालतें कोई निर्णय दे रहीं, इसलिए आजादी की जयकार के साथ हर क्षेत्र के लोगों को अपनी जिम्मेदारियों के संकल्प पर भी विचार करना अच्छा होगा।

Web Title: Take pledge of responsibilities with cheers

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