विश्वनाथ सचदेव: धर्म के आधार पर भाषाओं को न बांटें
By विश्वनाथ सचदेव | Published: January 31, 2019 06:50 PM2019-01-31T18:50:22+5:302019-01-31T18:50:22+5:30
आज एक समाचार पढ़ के बैंक वाली यह घटना अचानक याद आ गई. समाचार के अनुसार उच्चतम न्यायालय में एक मामला चल रहा है. अदालत से यह अपेक्षा की गई है कि वह देश के केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना पर तत्काल प्रतिबंध लगाए. प्रार्थी की शिकायत यह है कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक प्रार्थना संविधान के प्रतिकूल है.
कुछ अर्सा पहले किसी राष्ट्रीयकृत बैंक के एक कार्यक्र म में जाने का अवसर मिला था. वहां यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ था कि उस बैंक के सारे कर्मचारी रोज सुबह काम की शुरुआत से पहले सामूहिक प्रार्थना में भाग लेते हैं. कर्मचारियों में लगभग सभी धर्मो को मानने वालों की उपस्थिति की संभावना को देखते हुए सहज जिज्ञासा-वश मैंने पूछ लिया था, कौन-सी प्रार्थना होती है रोज सबेरे?
मुझे अपने स्कूल की प्रार्थना याद आ रही थी- हे प्रभु आनंददात ज्ञान हमको दीजिए.. मुझे बताया गया कि बैंक के कर्मचारी रोज सबेरे इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन में विश्वास कमजोर हो ना.. का पाठ करते हैं. एक हिंदी सिनेमा में गायी गई यह प्रार्थना सचमुच प्रेरणादायी है. इस चयन के लिए, और इस निर्णय के लिए मैंने बैंक के अधिकारियों की मन ही मन सराहना की थी.
आज एक समाचार पढ़ के बैंक वाली यह घटना अचानक याद आ गई. समाचार के अनुसार उच्चतम न्यायालय में एक मामला चल रहा है. अदालत से यह अपेक्षा की गई है कि वह देश के केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना पर तत्काल प्रतिबंध लगाए. प्रार्थी की शिकायत यह है कि सरकारी स्कूलों में धार्मिक प्रार्थना संविधान के प्रतिकूल है.
प्रार्थी का कहना है कि यह प्रार्थना हिंदू धर्म पर आधारित है, इसलिए इसे सरकारी स्कूल में नहीं गाया जाना चाहिए. अदालत ने मामला पांच जजों की संवैधानिक पीठ को सौंपने का निर्णय किया है. अब इस पीठ के समक्ष होने वाली सुनवाई के बाद ही यह निर्णय हो पाएगा कि केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना संविधान की धाराओं के अनुकूल है अथवा नहीं. लेकिन यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि आखिर इस प्रार्थना में ऐसा क्या है जिस पर आपत्ति की जा रही है. आपत्ति दुहरी है. पहली तो यह कि अल्पसंख्यकों और निरीश्वरवादियों को उनके विश्वासों के प्रतिकूल आचरण के लिए बाध्य किया जा रहा है, और दूसरी आपत्ति यह है कि प्रार्थना में संस्कृत के वाक्य हैं जो कि एक धर्म-विशेष से संबंधित भाषा है.
जहां तक पहली आपत्ति का सवाल है, न्यायालय इसके बारे में निर्णय करेगा कि इस प्रार्थना का गाया जाना संविधान-विरोधी है अथवा नहीं, लेकिन धर्म-विशेष की भाषा वाली दूसरी आपत्ति पर देश के सामान्य नागरिक को भी गौर करना चाहिए. क्या भाषा भी किसी धर्म-विशेष की होती है?
केंद्रीय विद्यालयों में गायी जाने वाली प्रार्थना में संस्कृत की कुछ उक्तियां हैं - असतो मा सद्गमय. तमसो मा ज्योतिर्गमय. मृत्योर्मामृतं गमय. संस्कृत के इन शब्दों का सीधा-सा अर्थ है, मुझे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाओ, अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ. मृत्यु से जीवन की ओर ले जाओ. यह सही है कि ये तीन पंक्तियां उपनिषदों से ली गई हैं, लेकिन इन पंक्तियों का उपनिषदों से लिया जाना, उपनिषदों का संबंध हिंदू धर्म से होना और संस्कृत में लिखा जाना इन्हें धर्म-विशेष तक सीमित कैसे कर देता है? किसी भी धर्म का भाषा से क्या लेना-देना?
भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है. भाषा के द्वारा हम अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं और दूसरों की बात भाषा के माध्यम से ही हम तक पहुंचती है. यह भाषा बोली हुई भी हो सकती है और संकेतों वाली भी. मान लो असतो मा सद्गमय वाली बात बोलकर नहीं, संकेतों से कही जाए तो? तब भी क्या वह मौन-भाषा धर्म-विशेष से जुड़ी रहेगी?
यह सही है कि हिंदू धर्म के लगभग सभी प्राचीन ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं, लेकिन हजारों वर्ष पहले लिखे गए वेद या उपनिषद धार्मिक ग्रंथ मात्न तो नहीं हैं. उस जमाने में संस्कृत बोलने वाले हर विषय की बात इसी भाषा में ही तो करते होंगे, फिर यह सिर्फ हिंदुओं की भाषा कैसी हो गई? उर्दू की नब्बे प्रतिशत से अधिक क्रि याएं मूलत: संस्कृत और प्राकृत से ही ली गई हैं. फिर उर्दू मुसलमानों की भाषा कैसे हो गई?
भाषाओं को धर्म के साथ जोड़ने का अर्थ उस विविधता को अपमानित करना है जो भारतीय समाज की एक ताकत है. उर्दू को मुसलमानों की या संस्कृत अथवा हिंदी को हिंदुओं की भाषा बनाकर हम अपने समाज को, भारतीय समाज को बांटने का काम ही कर रहे हैं. धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्नीयता आदि के नाम पर दीवारें उठाकर हम अपने आंगन को लगातार छोटा किए जा रहे हैं- इतना छोटा कि एक दिन दम घुट जाएगा हमारा.
धर्मग्रंथों की भाषा चाहे कोई भी हो, मूलत: धर्म-ग्रंथ पूरी मनुष्यता के होते हैं. धर्म-ग्रंथों का काम आदर्श जीवन की राह बताना है. भाषा तो माध्यम है इस बताने का. असतो मा सद्गमय का संदेश चाहे किसी भी भाषा में दिया जाए, उसका उद्देश्य मानव-समाज को बेहतर बनाना है. सब ईश्वर की संतान हैं या सब खुदा के बंदे हैं का सिर्फ एक ही मतलब हो सकता है. ईश्वर को हिंदू या खुदा को मुसलमान या फिर गॉड को ईसाई बताकर हम अपने अज्ञान और अपनी मूढ़ता का ही परिचय देते हैं. यही बात भाषा को हिंदू या मुसलमान या ईसाई बताने पर भी लागू होती है. धर्म के आधार पर भाषाओं का बंटवारा उतना ही गलत है जितना भाषा के आधार पर किसी का धर्म निर्धारित करना.