शरद जोशी का कॉलम: पशु दूत की भूमिका और राजनीति

By शरद जोशी | Published: August 10, 2019 08:49 AM2019-08-10T08:49:24+5:302019-08-10T08:49:24+5:30

आदमी में भामाशाह और घोड़े में चेतक, कभी दुनिया भूलेगी नहीं. बराबरी से याद रखेगी. प्रश्न यही है कि यदि घोड़े की तरह बोलें कम और काम ज्यादा करें, मोह ज्यादा जगावें तो वह इस जमाने में अधिक फायदे की बात है.

Sharad Joshi's column: Role and Politics of Animal | शरद जोशी का कॉलम: पशु दूत की भूमिका और राजनीति

शरद जोशी का कॉलम: पशु दूत की भूमिका और राजनीति

सदियों पूर्व जमाना बाहुबल का था. यूरोप की बर्बर जाति भारतीय काली मिर्च पर न्यौछावर हो रही थी, तब पहली बार मेसोपोटामिया के असुरों ने युद्ध के क्षेत्र में रथों के स्थान पर घोड़ों का उपयोग प्रारंभ किया. भारत में शत्रुओं की तलवारें और संस्कृति घोड़ों पर बैठकर आई.

टापों से धरती कांपने लगी और अश्वमेध का घोड़ा जिधर से निकलता था, वहां खून की नदियां सूखती थीं और उठे हुए सिर झुक जाते थे. शेरशाह और अकबर के रिसालों ने दिल्ली में बैठ सिर्फ टापों की घुड़की से देश को दूर-दूर तक दाब रखा.

समय का फेर है कि उसी आक्रमणकारी धरती के लोगों ने नेहरू को शांति मैत्री के प्रतीक रूप में घोड़ा भेंट किया है. विदेश के घोड़ों को दूसरे देश में सम्मान और स्नेह से देखा जाए, यह कभी नहीं हुआ, पर समय का फेर इसी को बोलते हैं, जिसमें आंखों के भाव फिर जाते हैं.

और यों जी, हिंदुस्तान में घोड़ा बड़े अजीब से रोल प्ले करता है. पूना के रेसकोर्स में कई इसकी दुम पकड़ उठे और गिरे हैं. इसी पर बैठ जब जवान या बूढ़ा कमर पर हाथ रखता है, मुंह में दो पान खाता है, सामने बाजे बजते हैं तो उसे दुल्हन मिल जाती है.

कहने का तात्पर्य यह है कि पशुओं को देख जरा दिल को खुशी होती है, बनिस्बत किसी विदेशी इनसान के, जो हवाई जहाज से उच्चस्तरीय चर्चा करने आया हो.

विवेकशील इनसान के मामले में सौ-सौ झगड़े हैं. कन्यादान के पूर्व और बाद भी जितनी परेशानी दाता और लेने वाले को होती है, वह परेशानी गोदान करने में किसी को नहीं होती है. भारत से जो कमाऊपूत बंदरों का टोल विदेश जाता है, वह मानवता की अधिक सेवा करता है, बजाय किसी फौज के, जो पराये क्षेत्रों में लड़ने जाती है. और भारत के हाथी विदेशों में जाकर अपनी सूंड़ हिलाने लगे हैं, जिसे देख वहां का बच्चा भी खुश, बच्चे के मां-बाप भी खुश. दोस्ती की भावना पैदा करने में यह मूक पशु अधिक काम आते हैं बजाय प्रेस प्रतिनिधियों को एकत्र करने वालों, बोलने-बहस करने वाले राजदूतों के.

आदमी में भामाशाह और घोड़े में चेतक, कभी दुनिया भूलेगी नहीं. बराबरी से याद रखेगी. प्रश्न यही है कि यदि घोड़े की तरह बोलें कम और काम ज्यादा करें, मोह ज्यादा जगावें तो वह इस जमाने में अधिक फायदे की बात है.

उम्मीद है, राजदूत घोड़े से सीखेंगे, अपनी जुबान को लगाम कर रखेंगे. और उसमें भी कभी राजसूय के अश्व न बनकर, चेतक बन रहने की कोशिश करेंगे. राजनीति की कड़वी दुनियादारी की दुलत्ती से बचने का यही तरीका है.ल्लल्ल
(रचनाकाल - 1950 का दशक)

Web Title: Sharad Joshi's column: Role and Politics of Animal

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