शरद जोशी: अन्दाजे-बयां की खासियत
By शरद जोशी | Published: November 23, 2019 05:13 PM2019-11-23T17:13:03+5:302019-11-23T18:32:14+5:30
पेश है दिवंगत लेखक शरद जोशी के लेखों की शृंखला की ताजा किस्त।
उस दिन जब पड़ोसन ने राम जाने क्या समझकर ग्रामोफोन पर तवा चढ़ाया और पिन चुभोई (उई) तो एक गजल या ऐसी ही कुछ बज उठी. सारा रिकॉर्ड मैं ध्यान से सुनता रहा. अब बेमतलब कोई पास जोर से चिल्लाए तो उसकी बात सुनने को ध्यान से सुनना ही कह सकते हैं.
उसमें कहा गया था कि यों तो कई हैं मगर गालिब का अन्दाजे-बयां और है. रिकॉर्ड तो चुप हो गई पर यह ‘अन्दाजे-बयां और’ मेरे दिमाग में अटक गया. अन्दाजे-बयां और, यानी जो सब कहते हैं, वह नहीं; अभिव्यक्ति की मौलिकता, अपनी ढपली द्वारा निकला अपना राग, डेढ़ चावलों का अलग पकना आदि है.
यों तो सभी का अन्दाजे-बयां अलग-अलग है. भला आदमी जैसी बातचीत करता है, वैसी बातचीत एक पुलिसवाला नहीं करता. उसके रुतबे के स्वरों में जमादारी तत्व, घुड़क अभिव्यक्ति तथा ङिाड़क अभिव्यंजना अलग ही है. शायद ऐसी अभिव्यक्ति के पीछे उसकी अनुभूति भी अलग है.
खैर छोड़ो, मैं पुलिस की ज्यादा बात कर वातावरण गंभीर करना नहीं चाहता. पर यह अन्दाजे-बयां पर जोर देना आवश्यक है. हर अखबार एक ही बात बोलता है. नेहरू का समाजवाद, ढेबर, विनोबा आदि वे ही खबरें सब जगह. पर फिर भी इस अन्दाजे-बयां का ही दम है कि जिधर देखो उधर ही आकर्षण है.
स्कूल में जो किताबें चलती हैं, वे एक सरीखी होती हैं. मास्टर वही बोलता है. पर सुनने वालों में सभी तो उल्लू नहीं होते, अत: ज्ञान की डिजाइनें अलग-अलग हो जाती हैं और जब भारत के भविष्य के अनुसार सारे छात्र प्रौढ़ों में बदलते हैं तो सबका अन्दाजे-बयां और हो जाता है!
यात्रओं के मौके सभी को आते हैं. रेल का पेट कब खाली रहता है! यात्र वर्णन भी कई करते हैं पर प्रसिद्ध यात्री एकाध ही बनता है क्योंकि अन्दाजे-बयां और होता है! सांस्कृतिक, सामाजिक, साहित्यिक, अखबारी, कारबारी- सभी क्षेत्रों में वही समस्या है, वही हल है और वही बातें हैं - मगर अच्छी दलाली, अच्छी भटैती हरेक नहीं करता, उसे करने वाला मन और मानस हरने वाला एक सुखनवर अलग ही होता है.
फिर शिक्षा का, किताबों का, भाषण का- सबका एक ही उद्देश्य है कि आप अपने अन्दाजे-बयां का प्रदर्शन करते रहें. बस, यदि आपने अपनी शैली बना ली तो जीवन सफल है. लोग गालिब के लिए जैसा कहते थे कि यों तो सुखनवर हैं बहुत से, पर गालिब का अन्दाजे-बयां और है - वैसे आपके नाम पर भी रोएंगे. इसका आनंद आगरे में आया था. पागलखाने में देखा कि हर व्यक्ति का लहजा, मौलिक अभिव्यक्ति, यानी अन्दाजे-बयां अलग ही था.
(रचनाकाल - 1950 का दशक)