ब्लॉग: ‘स्वास्थ्य का अधिकार’ की पहल देश में एक नई शुरुआत
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: April 10, 2023 02:40 PM2023-04-10T14:40:13+5:302023-04-10T14:53:55+5:30
राज्य में अभी-भी सैकड़ों चिकित्सकों के पद खाली हैं जिनको भरने की कोई तैयारी नहीं है। यही नहीं सरकार अपनी विभिन्न योजनाओं के तहत मरीजों को निजी अस्पतालों में इलाज के लिए भेजती है, लेकिन इलाज के खर्च का समय पर भुगतान नहीं करती है।
नई दिल्ली:राजस्थान सरकार ने बीते माह ‘स्वास्थ्य का अधिकार’(राइट टू हेल्थ) लागू कर देश में एक नई शुरुआत कर दी. सूचना, भोजन और शिक्षा के अधिकार के बाद आम आदमी को स्वास्थ्य का अधिकार मिलना एक दूरगामी परिणामों को हासिल करने की तैयारी है. हालांकि इस निर्णय को लागू करवाते समय राजस्थान सरकार को काफी विरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि निजी चिकित्सा का क्षेत्र इससे नाराज था.
नए कानून में निजी क्षेत्र को मिली है छूट
जिसके बाद राज्य सरकार ने एक सहमति बनाकर प्रथम चरण में 50 पलंग से कम के निजी मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों को कानून के दायरे से बाहर कर दिया. इसके अलावा जिन निजी अस्पतालों ने सरकार से कोई रियायत नहीं ली है या अस्पताल के भू-आवंटन में कोई छूट नहीं ली है, उन पर भी कानून की बाध्यता समाप्त कर दी. कुल मिलाकर नए कानून में निजी क्षेत्र को छूट दे दी.
राइट टू हेल्थ के ये है फायदे
फिलहाल सरकार इसे अपने संसाधनों और अपने संस्थानों से लागू करेगी, जिसके अंतर्गत राज्य में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सरकारी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र से तमाम स्वास्थ्य सेवाएं पूर्णतः निःशुल्क प्राप्त करने का अधिकार होगा. मरीज को जांच व उपचार रिपोर्ट, उपचार के मदवार बिलों, यदि किसी महिला रोगी की जांच पुरुष चिकित्सक द्वारा की जा रही है तो रोगी के साथ किसी अन्य महिला की उपस्थिति, स्वास्थ्य सेवाओं की दरों और शुल्कों के बारे में जानकारी, दवाओं या जांचों को प्राप्त करने के स्रोत का स्वयं चयन कर पाने का अधिकार इत्यादि मिलेगा.
नियमों की अवहेलना पर होगी पेनल्टी
इसके नियमों के अंतर्गत रोगियों की जिम्मेदारियों और कर्तव्यों एवं स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के अधिकारों और जिम्मेदारियों को भी तय कर सम्मिलित किया जाएगा. यह स्वास्थ्य बजट में उचित प्रावधान करने, मानव संसाधन नीति को विकसित करने, शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने इत्यादि के लिए भी प्रतिबद्ध है. इसकी अवहेलना पर पेनल्टी का भी प्रावधान किया गया है. मगर दूसरी ओर निजी चिकित्सा क्षेत्र सरकार की आम आदमी के स्वास्थ्य के अधिकार की प्रतिबद्धता के बीच सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल भी खोलता है.
सरकार पर लग रहे है ये आरोप
राज्य में अभी-भी सैकड़ों चिकित्सकों के पद खाली हैं जिनको भरने की कोई तैयारी नहीं है. सरकार अपनी विभिन्न योजनाओं के तहत मरीजों को निजी अस्पतालों में इलाज के लिए भेजती है, लेकिन इलाज के खर्च का समय पर भुगतान नहीं करती है. इसके साथ ही सरकारी दर और वास्तविक दर में काफी अंतर रहता है. दरअसल देश में सरकारी चिकित्सा तंत्र लगातार पिछड़ता जा रहा है और निजी संस्थाएं उस पर हावी होती जा रही हैं. उनमें स्पर्धा भी है. लेकिन सरकारी क्षेत्र में कमियों-कमजोरी की सीधी वजह बजट का अभाव है.
जीडीपी का दो फीसदी होता है भारत में स्वास्थ्य का बजट
भारत में स्वास्थ्य का बजट सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का दो फीसदी है, जबकि यूरोपीय देशों में यह नौ से दस प्रतिशत तक है. वहीं अमेरिका में यह आंकड़ा सोलह फीसदी तक पहुंच जाता है. स्पष्ट है जब सरकारी संस्थाओं के पास मानव संसाधन तथा पैसा नहीं होगा तो वे सेवाएं कैसे देंगी? इस स्थिति का लाभ यदि निजी संस्थाएं उठाएंगी तो उन्हें गलत कैसे ठहराया जाएगा? ऐसे में चिकित्सकों की संख्या तथा उनका सरकारी नौकरी की ओर आकर्षण बढ़ाने के लिए ठोस प्रयास हों तो कुछ बात बन सकती है.
परिस्थितियों से आंख मिलाते हुए ठोस कदम उठाने से रास्ते निकल सकते हैं, जिससे सरकारी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का ढांचा और सुदृढ़ व सुव्यवस्थित बनाया जा सकता है. तभी लोगों को कानून के तहत उल्लेखित सभी सेवाएं गुणवत्तापूर्ण व निर्बाध रूप से बिना किसी भी जेब खर्च के निश्चित दूरी पर मिल सकेंगी और सही अर्थों में कानून का लाभ आम आदमी को मिल पाएगा, अन्यथा वह कागज का एक नया टुकड़ा बन कर रह जाएगा.