अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: दूरगामी होंगे जातिगत जनगणना के परिणाम
By अभय कुमार दुबे | Published: October 10, 2023 03:48 PM2023-10-10T15:48:24+5:302023-10-10T15:49:07+5:30
मेरा विचार है कि बिहार की जातिगत जनगणना के साथ ही पिछड़ी जातियों के वोटरों की गोलबंदी के लिए होने वाली प्रतियोगिता अपने तीसरे चरण में पहुंच गई है। ध्यान रहे कि यह होड़ केवल हिंदू पिछड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि मुसलमान पिछड़ों की भी इसमें उल्लेखनीय भूमिका है।
जातिप्रथा और जनगणना के आपसी संबंधों पर करीब दो साल पहले मैंने लिखा था कि जातिगत जनगणना राजनीतिक गोलबंदी के ढांचे को रैडिकली बदल सकती है। राजनीतिक मांगों का विन्यास और पार्टियों के घोषणापत्र हो सकता है कि जनगणना के बाद पहले जैसे न रह जाएं। चुनाव में टिकटों के बंटवारे के मानक नए सिरे से तैयार करने पड़ सकते हैं। पार्टियों में पदों का बंटवारा, सरकारों में मंत्रीपदों का वितरण- यानी हर चीज पहले जैसी नहीं रह जाएगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जातिगत जनगणना के प्रभाव गहन और बुनियादी होंगे- उन अर्थों में नहीं जिनमें लोग सोच रहे हैं, बल्कि उन अर्थों में जिनमें अभी सोचना तकरीबन नामुमकिन है।
मेरा विचार है कि बिहार की जातिगत जनगणना के साथ ही पिछड़ी जातियों के वोटरों की गोलबंदी के लिए होने वाली प्रतियोगिता अपने तीसरे चरण में पहुंच गई है। ध्यान रहे कि यह होड़ केवल हिंदू पिछड़ों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि मुसलमान पिछड़ों की भी इसमें उल्लेखनीय भूमिका है।
अगर इस्लामिक पिछड़ों (अजलाफ और अरज़ाल) की संख्या को नहीं जोड़ा गया होता तो यह प्रतिशत 63 तक नहीं पहुंचता, और अगर मुसलमान ऊंची जातियों (अशराफों) को नहीं जोड़ा गया होता तो गैर-आरक्षित जातियों का प्रतिशत 15 से भी नीचे चला जाता। इस तरह इस जनगणना ने देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को मजहबी दृष्टि से देखने के बजाय संविधानगत तरीका अपनाते हुए सामाजिक दृष्टि से देखने पर बल दिया है।
इससे हिंदू-मुसलमान को एक-दूसरे के मुकाबले रखने की राजनीति कमजोर होने की संभावना है। 1957 में सोशलिस्ट पार्टी का घोषणापत्र स्वयं डॉ. लोहिया ने लिखा था जिसमें ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ की मांग की गई थी। देखते ही देखते पिछड़ा गोलबंदी के मैदान में एक और खिलाड़ी आ गया। इसका नाम भारतीय जनसंघ था और इसके अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय ने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के मार्गदर्शन में हिंदू पिछड़ों (कर्मकांडीय दृष्टि से शूद्रों) को ऊंची जातियों के साथ जोड़ने की रणनीति का आगाज किया। यह प्रतियोगिता आज तक जारी है।
आसानी से समझने के लिए हम इन दोनों मॉडलों को क्रमश: लोहिया-लालू मॉडल और उपाध्याय-मोदी मॉडल का नाम दे सकते हैं। लोहिया-लालू मॉडल की खास बात यह थी कि उसे अगड़ी जातियों की कोई खास चिंता नहीं थी, और उसके उलट उपाध्याय-मोदी मॉडल ऊंची जातियों को अपना स्वाभाविक घटक मान कर चल रहा था। पहला मॉडल अगड़ी जातियों के वोटरों की कमी की भरपाई मुसलमान वोटरों से करना चाहता था।
दोनों ही मॉडलों के पास पहले दौर में दलित वोटरों को अपनी ओर खींचने का कोई स्पष्ट कार्यक्रम नहीं था। इसलिए अस्सी के दशक में एक तीसरा मॉडल मैदान में आया जिसे कांशी-माया मॉडल का नाम दिया जा सकता है। इसका दावा था कि पिछड़ों और मुसलमानों, दोनों को दलितों का नेतृत्व स्वीकार कर लेना चाहिए। 2007 में तीसरे मॉडल की गोलबंदी चरम पर पहुंची जब बहुजन समाज पार्टी को अकेले दम पर उप्र में पूर्ण बहुमत मिला, लेकिन उसके बाद से यह मॉडल अपनी भीतरी कमजोरियों और रणनीतिक ढुलमुलपन के कारण पिछड़ता चला गया।
आज यह होड़ से बाहर होकर कोने में चुप बैठा हुआ है। पिछड़ा गोलबंदी का दूसरा चरण तब शुरू हुआ जब उपाध्याय-मोदी मॉडल ने पिछड़े वोटरों के प्रभुत्वशाली हिस्से (यादवों) के खिलाफ इस विशाल समुदाय के बाकी हिस्से को गोलबंद करने की शुरुआत की। गोलबंदी की इस रणनीति के पहले लोहिया-लालू मॉडल प्रतियोगिता में लगातार आगे दौड़ रहा था, लेकिन जैसे ही भाजपा ने लोधियों और काछियों से लेकर राजभरों, निषादों, नाइयों और गड़रियाओं आदि को समझाया कि आरक्षण के फायदे और सत्ता से नजदीकियां चाहिए तो यादवों को छोड़ कर भाजपा के अगड़ों से जुड़ना होगा तो शुरुआती हिचक के बाद से यह मुहिम परवान चढ़ी और पिछले दस साल में धीरे-धीरे उपाध्याय-मोदी मॉडल आगे निकल गया।
भाजपा ने जो रोहिणी कमीशन पिछड़ों की जांच के लिए बनाया था, उसकी रपट भी उसने अलमारी में बंद रखी हुई है। मोदी की रणनीति यह थी कि जस्टिस रोहिणी के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए विश्वकर्मा जैसी योजनाओं के जरिये अतिपिछड़ों (जो ज्यादातर कारीगर जातियां हैं) को लुभाओ, पर इन्हें सार्वजनिक करके जातिगत चेतना को उभरने से रोको, लेकिन नीतीश कुमार ने वही कर दिखाया जो मोदी तो क्या कर्नाटक में अपने पिछले कार्यकाल में सिद्धारमैया भी नहीं कर पाए थे।
उन्होंने भी एक जातिगत गणना करके अलमारी में बंद रखी हुई है, यानी तब की कांग्रेस भी कर जरूर रही थी, पर पूरा मन नहीं बना पा रही थी। राहुल गांधी ने पूरा मन बनाया और नीतीश-लालू के साथ जुड़ कर अपनी जनगणना के पिटारे को खोल दिया। इस घटनाक्रम ने राजनीति का खेल बदल दिया है। एक बार फिर लोहिया-लालू मॉडल आगे निकलता प्रतीत हो रहा है। बिहार के आंकड़े सामाजिक न्याय की पार्टियों को सारे देश में मजबूर करेंगे कि अतिपिछड़ों और अतिदलितों की झोली में भी कुछ डालें। अभी तक केवल भाजपा ही इन तबकों की गोलबंदी कर रही थी, पर अब इस होड़ में दूसरी पार्टियां भी कूद पड़ेंगी।